HINDI KAVITA

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प्रलय

क्या तुमनें देखा है प्रलय का मंजर ?
निस्तब्ध जगत दुःखद करुण क्रंदन,
रंग बिरंगे इस दुनियां में शून्य सा स्पंदन,
झंझवातें वो सर्वत्र कम्पन,
रग रग में टूटता आस
जहां नहीं कहीं पर विश्वास,
कहां से ये धरती फट जाए
होश किसे जो ये बतलाये,
एक क्ष में बैठे इन्हीं आंखो से
मैनें देखा प्रलय का मंजर
सर्वत्र जलाप्लावन तथा अजब सा कम्पन
इन्द्रदेव के कुपित दृष्टि चंचला से पूरित हो
बचा हुआ था अब तक कक्ष हमारा
बचे हुए थे कुछ प्राणी बाहर
भूत जिन्हें हम कहते थे
श्वेत धवल वो स्निग्ध काया
क्षभर रुककर किंचित वो मुस्काए
‘रे स्वार्थी प्राणी ‘ कुछ यों वे होठ हिलाए
मैं इस प्रलय में बाहर हूं
तू अन्दर सोता है
पता नहीं शायद तुझको
प्रलय से कुछ शेष नहीं रहता है
तभी झटित एक हवा का झोंका आया
झोंका था या अदम्य साहस
कहां गए वो खिड़की कहां गया वो दरवाजा
होश किसे जो ये बतलाये
लगता है प्रलय जब होता है
कुछ हालत ही ऐसा होता है
कोई किसी का नहीं रहजाता है
रक्तिम वर्ण जगत का होकर
भीषण विध्वंस संवलित हो कर
अपने शक्ति का आभान करता है
यही प्रलय कहलाता है
नूतन सृष्टि का जनक होकर|


कैसे मन का दीप जलाऊँ?


इन अन्धेरी रातों में
कैसे मन का दीप जलाऊँ?
अंजान शहर की इन राहों में
किसको अपना गीत सुनाऊँ?
जहाँ न कोई रिश्ता नाता
फिर क्यूं मन है वहीं पे जाता?
मेरी बेबस दिल की बातें
क्यूं ये मन उस तक पहुंचाता?
नहीं कभी थी चाहत जिससे
फिर क्यूं आज है चाहत उससे?
धूप-छाँव के जीवन में ये
क्यों प्यास जगाया मिलकर उससे?
जब कोई नहीं है इस जहाँ में
कैसे मिलकर प्यास बुझाऊँ?
इन अन्धेरी रातों में
कैसे मन का दीप जलाऊँ?
अंजान शहर की इन राहों में
किसको अपना गीत सुनाऊँ?


२८-०४-०५ २१:१०

शायद सुबह अब हो गयी।


ताड के झुडमुट से दिखती स्वर्णिम आभाएं
बादलों में प्रतिबिम्बित ये स्वर्णिम छटाएं
कहते हैं उदीचि में मूक बनकर
शायद सुबह अब हो गयी।

पंछी के कलरव, मोटर की गर्राहट
भीनी-भीनी ठण्डी बयार और नीले-नीले निश्चल अम्बर
मजदूरों के पदचाप कर्तव्य पथ पर हैं कहते
शायद सुबह अब हो गयी।

प्रातः काल की इस बेला में
धूपछाँव के इस जीवन में
कर्तव्य विरत होने वाले सुन
शायद सुबह अब हो गयी।

सूर्य चन्द्र यक्ष गन्धर्व किन्नर
पशु पक्षी और ये कीट सरीसृप
कर्तव्य पथपर हो शिक्षित करते
मानो शायद सुबह अब हो गयी।

क्यों ?


हम हैं अकेले हैं आप अकेली,
क्यों याद सताये अपनों की?
है चान्द अकेला है चान्दनी अकेली,
क्यों फिर साथ निभाये दुनियां की?
है दिवस अकेला है निशा अकेली,
क्यों आश लगाये तारों की?
है गगन अकेला है धरा अकेली,
क्यों धैर्य बन्धाये नव सर्जन की?
है स्रष्टा अकेला है सृष्टि अकेली,
क्यों चिंतन हो फ़िर मानव की?
है हर प्राणी जव यहां अकेला,
क्यों याद करे मृगतृष्णा की?
हम हैं अकेले हैं आप अकेली,
क्यों याद सताये अपनों की?

कैसे…?

माना सभी हैं यहां अकेले,
पर सृष्टिचक्र को कैसे भुलायें?
कैसे कह दें मैं नवसृष्टि का प्राणी,
नवजीवन है इस वसुधा पर।
कैसे कह् दें “कोइ नहीं मेरा”?
जो है बस इक सपना है.
कैसे कह दें यह जीवनलीला ,
मृगत्रुष्णावत इक क्रीडा है?
यही सोच सखे!! याद सताये-
है अपनों की घरवालों की।
यही सोच………..

भावुकता को मिटाना है॥


भावनाओं के तूफानों नें
जाने कितने चमन उजाडे
झंझाबातों को ये लाकर
कितनी बनती बात बिगाडे
मैनें अब यह जान लिया
अब खुद को है पहचान लिया
भावुकता के इस बन्धन में
कभी नहीं अब जीना है,
भावुकता को मिटाना है॥

अब तक जिनका साथ दिया
सदा ही जिसने प्रतिघात किया
नहीं समझ सका जिनको मैं
सदा ही जिसने ये दर्द दिया
फिर भी साथ निभाना है
भावुकता को मिटाना है॥

क्यूं उनके पीछे भागूं मैं?
क्यूं उन्को अपना समझू मैं?
खुद की दुनियाँ भी अब तो बसाना है
भावुकता को मिटाना है॥

भावना के अविरल प्रवाह में
जानें कितने डूब गये
बस एक किनारा को अब पाकर
कभी न अश्रु बहाना है
भावुकता को मिटाना है॥

छल दम्भद्वेष आदि की महफिल में
है भावना से सरोकार किसे?
भावुकता है सदा तेजरहित
तज तेज नही अब जीना है
भावुकता को मिटाना है॥

भावुकता के वशीभूत हो
विश्वामित्र है तपभंग किये
भावुकता के ही वशीभूत हो
हुमायुँ है सैन्य निवर्त किये
भावना के ही वशीभूत हो
जाने कितने संहार हुये
भावुकता के इस जकडन से
खुद को सदा बचाना है
भावुकता को मिटाना है॥

भावुकता सी सैन्य नहीं
है भावुकता नही दैन्य कोई
भावुकता के इस अन्तर्द्वन्द्व को
खुद को नहीं अब समझाना है
भावुकता को मिटाना है॥

भावुकता व निज संघर्षों मे
उत्थान पतन तो होंगे ही
भावुकता से मल्लयुद्ध में
इन बातों से नही घवराना है।
भावुकता को मिटाना है॥ भावुकता को मिटाना है॥
०६-०८-०५

प्रणय की तुम बात न करना प्रेयसी ।

प्रणय की तुम बात न करना प्रेयसी ।
दुनियाँ निष्ठुर दिल है कोमल ,
मर्दित करते हैं ये जैसे मदगज उत्पल,
नहीं कभी तुम मुझे याद आना
नहीं कभी तुम भूल ये जाना

नहीं जानता जब मैं तुझको,
नहीं स्मृति मे है रूप तुम्हारी
नहीं समझ सका अब तक तुमको
फिर कहाँ जहाँ में ढूंढूं तुमको

मेरे दृगमें तुम उल्लास नभरना
सुनों सखि! प्रणय की तुम बात न करना।
कोई कहे है तुझको सुन्दर
कोई कुरूप है बतलाता
ऐसे में सुनो प्रेयसी
प्रणय की तुम बात न करना प्रेयसी ।

प्रणय नहीं ये काम्य नहीं ये काम्य भाव जो
टिका रहे इन अंगो पर
प्रणय नहीं वो विष का प्याला
चिरनिद्रा तक तक जो साथ है दे पाए
प्रणय नहीं वो दृढ वक्र अयस
जो तत्पजनों को और तपाते
प्रणय नहीं धन जन यौवन
क्षणभर का साथ निभाकर
फिर आगे बढते जाते
इसीलिये हूं आज मैं कहता
प्रणय की तुम बात न करना।
प्रेयसी प्रणय की तुम बात न करना ।



काश! कि हम पत्थर दिल होते!!

काश! कि हम पत्थर दिल होते!!
काश! कि हम पत्थर दिल होते!!
खूब सताते लोगों को
नहीं किसी से चाहत होती
नहीं किसी होती नफरत।
सबसे झूठा प्यार जताते
चुपके से फिर तीर चलाते।
स्वार्थ जहाँ भी होती अपनी
मिलकर उअससे खूब निभाते
काम वो जब भी पडती उसको<
br> Sorry कह हम यूं शर्माते..
खुशी न होती किसी से मिलकर
नहीं किसी का गम बिछड कर।

यह कविता बहुत ही लंबी थी जिसके महत्त्वपूर्ण अंश को ही रक्खा गया है।
२८-०४-०५ २१:१०



बचपन था वो कितना सुहाना!!

बचपन था वो कितना सुहाना!!
संग तेरे बठे बात लडाना।
भाई-बहन को खूब चिढाना
काम न करना कर लाख बहाना
उम्र बढी खाकर पुरबाई
मेरे मन ने ली अँगराई
जिसने निशिदिन स्वप्न दिखाई
उफ! बचपन ने क्यूं ली जम्हाई
कालचक्र ने दी तरुणाई
सबने कर दी मेरी सगाई
पति देख मैं कुछ यूं शर्माई
वक्तने क्या यह खेल दिखाई।
सुन री सखि ! अब क्या है रोना
अब बस उनका साथ निभाना
चुपके से अब है तुमको बतलाना
बचपन था वो कितना सुहाना!!
बचपन था वो कितना सुहाना!!



सोचा मैं भी जन्मदिवस मनाऊं||

आश्विन कृष्ण त्रयोदशी के दिन
नवरात्रा से तीन दिवस पहले |
श्वेत धवल वस्त्रयुत हो
सोचा मैं भी जन्मदिवस मनाऊं||

मित्र किसी ने पूछा मुझसे
दिवस तो ऐसा हो जो सबको|
प्यारा लगे और याद रहे
रक्खो फरवरी या सितम्बर ||
जो पंडिताऊ से दूर रहे
केक वेक लाओ, काटो फिर उसको
याद रहे दिन नहीं, वो निशा रहे |
पार्टी सार्टी साथ करेंगे
पैग वेग भी कुछ साथ रहे ||

तन्मयता से सुनकर बातें
बोलूं क्या कुछ समझा नहीं |
बोला भाई मेरे सुन मिथिला मे
पूजा होती बस संस्कृति की||
तात मात से आशीष लेकर
गुरुजन का संबल पाकर |
अध्यवसाय मे सतत युक्त हो
अब सोचा मैं जन्मदिवस मनाऊं||

अपने कौन?

तन ने जब गद्दारी की,
अहसास हुआ, हैं अपने कौन!
पल पल जिनसे प्यार किया
हर पल जिसका ध्यान किया
कटु अनुभव पा उनसे
अहसास हुआ, हैं अपने कौन!
जीवन साथी वो जनम जनम के
प्यार किसी? से करते वो!!
व्याज सदा ही रहता होठों पर
अहसास दिलाता जो अपने कौन!
कोई जिये मरे कोई
काम से बस मतलब रखना है
सब आखिर अपने है!!
शान्त स्निग्ध धवल वो सुन्दर
कलुषित बस जो समझ नही!!
बस एक चुभन के आगे
जान पडा है अपने कौन?
सुन प्रीत मेरे देख जगत को
हर एक ने रीत यही निभाई है।
वो अलग नहीं इस भीड भेड से
अब तो जान है अपना कौन?


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