ISSN 0976-8645
हेत्वाभास की तत्त्वनिर्णय-विजयप्रयोजकता
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in Walkman-Chanakya-901 font
प्रो.
पीयूषकान्त दीक्षित
न्यायवैशेषिकविभागः
श्रीलालबहुरशास्त्रिविद्यापीठम्, नवदेहली
सामान्यनिरुक्ति,
तत्त्वचिन्तामणि
नामक महानिबन्ध
का एक महत्त्वपूर्ण
अंश है। यह महानिबन्ध
आचार्य गङ्गेश
उपाध्याय द्वारा
विरचित नव्य-न्याय
शास्त्र की अनुपम
कृति है। सामान्यनिरुक्ति
में हेत्वाभास
एवं दुष्ट हेतुओं
की विस्तार से
चर्चा है। संक्षिप्त
एवं सारगर्भित
चिन्तामणि का व्याख्यान
अनेक प्रतिष्ठित
विद्वानों द्वारा
किया गया है। श्रीरघुनाथ
शिरोमणि ने तत्त्वचिन्तामणि
के गूढ रहस्यों
को विस्तार से
समझाने के लिये
दीधिति
नाम
की टीका लिखी।
कालान्तर में दीधिति
व्याख्या पर भी
श्रीगदाधरभट्टाचार्य
ने एक प्रसिद्ध
विस्तृत टीका गादाधरी की रचना
की। गादाधरी व्याख्या
की गम्भीरता एवं
जटिलता को घ्यान
में रखते हुए श्रीबलदेव
भट्टाचार्य ने
बलदेवी नाम की
टीका का प्रणयन
किया। इस टीका
में तत्त्वचिन्तामणि
दीधिति एवं गादाधरी
व्याख्या के समग्र अर्थ
का अपूर्व विवेचन
किया गया है। अधुनातन
छात्रों को दृष्टि
में रखते हुए गादाधरी
के भाव को सरलता
से समझाने के उद्देश्य
से श्रीरूपनाथ
झा जी ने विमलप्रभा
नाम की अत्यन्त
सरल एवं सरस टीका
ग्रथित की है।
यह निबन्ध सामान्यनिरुक्ति
के तत्त्वचिन्तामणि,
दीधिति, गादाधरी,
बलदेवी, एवं विमलप्रभा,
के समग्र आशय को
स्पष्ट करने में
सफल सिद्ध होगा।
प्रस्तुत
ग्रन्थ सामान्यनिरुक्ति
के भाव को समझने
के लिये सामान्यनिरुक्ति
प्रकरण के पूर्व
चर्चित चिन्तामणि
के प्रसङ्ग को
समझना अपेक्षित
है। अनुमान खण्ड
के व्याख्यान एवं
विस्तृत विवरण
के सन्दर्भ में
आचार्य गङ्गेश
उपाघ्याय ने हेतु असद्धेतु
का विश्लेषण पूर्ण
किया है। इसी प्रसङ्ग
में अब आचार्य
गङ्गेश हेत्वाभास
की विस्तार से
व्याख्या आरम्भ
करते हैं। ये हेत्वाभास
हेतु की तरह प्रतीत
होते हैं पर हेतु
के लिये अपेक्षित,
लक्षण आदि से सम्बद्ध
नहीं होते हैं।
हेत्वाभास
जो यथार्थ-निर्णय
एवं विजय को सुलभ
कराने में वाद-प्रतिवाद
की स्थिति में
कारण हैं, अतः इनका
निरूपण लोकोपकार
की दृष्टि से श्रीगङ्गेश
उपाध्याय ने किया है
।
प्रायः
सभी शास्त्रीय
ग्रन्थों में,
ग्रन्थ के अघ्ययन
के प्रयोजन का
उल्लेख होता है।
यह सर्वविदित तथ्य
है कि ग्रन्थ में
बताये गये विषय
के प्रयोजन एवं
उपयोगिता को समझे
बिना कोई भी व्यक्ति
अघ्ययन का आरम्भ
नहीं करता है।
यही कारण है कि
तत्त्वचिन्तामणि
में सबसे पहले,
यह उल्लेख किया
गया है कि हेत्वाभास
के अघ्ययन से तत्त्वनिर्णय;यथार्थज्ञान
और विजय प्राप्त
होता है।
अब तक
के ग्रन्थ से परिकर
;व्याप्ति एवं
पक्षधर्मता से
युक्त सद्धेतु
का निरूपण करके
उसके हेतु के प्रसङ्ग
के कारण तथा हेतु के एक कार्य
;तत्त्व निर्णय
एवं विजयद्धका
कारण होने के कारण
उसके ;हेतु के द्ध
आभास के अर्थात्
हेत्वाभास
के निरूपण की प्रतिज्ञा
चिन्तामणिकार
द्वारा की गयी
है यह श्रीरघुनाथशिरोमणि
अभिमत है ।
हेत्वाभास
के निरूपण में
प्रसिद्ध छः सङ्गतियों
में प्रसङ्ग सङ्गति
भी सम्भव है। क्यों
कि व्याप्ति एवं
पक्षधर्मता से
युक्त हेतु ;स(ेतु
द्ध के निरूपण
के बाद , व्याप्ति
एवं पक्षधर्मता
के विरोध्ी-व्याप्ति
के अभाव एवं पक्षधर्मता
के अभाव वाले दुष्ट
हेतु ;हेत्वाभासद्ध
का सहज ही
स्मरण होता है।
अतः प्रसङ्ग सङ्गति
का प्रदर्शन न
करने वाले मूल
;चिन्तामणिद्ध
में न्यूनता ;कमीद्ध
को दूर करने की
अभिलाषा से दीधिति
के रचयिता श्रीरध्ुनाथ
शिरोमणि, प्रसङ्ग
;सङ्गतिद्ध में
भी हेत्वाभास के
निरूपण की प्रयोजकता
बताते हैं ।
तत्त्वचिन्तामणि
के प्रथम वाक्य
का, व्याकरण के
नियमों द्वारा
विज्ञात शब्दोें
के अर्थों का विश्लेषण
करने पर, आचार्य
गङ्गेश का अभिमत
- ‘हेत्वाभास,
तत्त्व निर्णय
एवं विजय के प्रयोजक
;कारण का कारणद्ध
होने के कारण ;श्रीगङ्गेश
उपाध्याय द्वाराद्ध
प्रतिपादित किये
जा रहे हैं’ इस
प्रकार स्पष्ट
होता है।
न्याय
दर्शन के अनुसार
प्रथमा विभक्ति
जिस पद के बाद होती
है उस पद का अर्थ,
सम्पूर्ण वाक्य
के अर्थ में प्रमुख
होता है। इस व्यवस्था
के अनुसार प्रथम
वाक्य को सुनने
के अनन्तर ‘स(ेतु
के प्रतिपादन के
बाद ;सिद्धान्त
लक्षण आदि चिन्तामणि
ग्रन्थ मेंद्धशिष्यों
को ‘स(ेतु की
तरह तत्त्वनिर्णय
एवं विजय का प्रयोजक
;कारण का कारणद्ध
हेत्वाभास या दुष्ट
हेतु भी है’ इस
प्रकार का ज्ञान
हो जाने से, हेत्वाभास
या दुष्ट हेतुओं
को जानने की जो
प्रबल इच्छा उत्पन्न
होती है इसी इच्छा
के वशी भूत हो कर
चिन्तामणि नामक
महानिबन्ध लिखने
के लिये सन्न( आचार्य
गङ्गेश की आत्मा
में वर्तमान काल
के बाद अगले ही
क्षण में एक अदम्य
उत्साह या कृति
उत्पन्न होती है
इसी कृति उत्साह
या प्रयास से अपने
शिष्यों की जिज्ञासा
को शान्त करने
के लिये ग्रन्थ-लेखन
या अध्यापन रूप
क्रिया या व्यापार
उत्पन्न होता है,
इस व्यापार विशेष
से ;हेत्वाभास
या दुष्ट हेतुओं
काद्ध जो बोध्
या प्रतिपत्ति
होती उसके विषय
हेत्वाभास हैं’ यह बोध्
सहज ही होता है।
चिन्तामणि
के इस छोटे से वाक्य
से इतना विस्तृत
बोध् जो सर्वानुभव
सिद्ध है, कैसे
होता है, इस प्रश्न
का समाधन करने
के लिये व्याकरण
के अनुसार प्रत्येक
पद का अर्थ क्या
क्या होता है यह
आचार्य बलदेव ने
इस प्रकार समझाया
है-
‘‘तत्त्वनिर्णयविजयप्रयोजकत्वात्
मया निरूप्यन्ते
हेत्वाभासाः’’ वाक्य का यह
क्रम, न्याय दर्शन
के अनुसार वाक्य
से होने वाले बोध्
में प्रथमा विभक्ति
वाले पद के अर्थ
की प्रमुखता के
कारण बनता है।
यही कारण है कि
पदों का व्याकरण
के अनुसार अर्थ
करने के सन्दर्भ
में आचार्य बलदेव
‘तत्त्वनिर्णयविजयप्रयोजकत्वात्’ इस पद के अन्त
में स्थित पंचमी
विभक्ति का अर्थ
‘उसके ज्ञान
से जन्य जिज्ञासा
की अध्ीनता’ है यह सर्व प्रथम
स्पष्ट करते हैं। दूसरे पद
‘मया’ में
अस्मत् पद का अर्थ
‘आचार्य गङ्गेश’ एवं तृतीया
विभक्ति का अर्थ
‘कृति’ करते
है जो श्री गङ्गेश
में समवाय सम्बन्ध
से रहती है। ‘निरूप्यन्ते’ का विश्लेषण
करते हुए आचार्य
सर्वप्रथम इसका
दो विभाग, ‘पूर्व
में नि उपर्स के
साथ रूप धतु’ एवं कर्म अर्थ
में आये आख्यात
‘त’ के रूप
में करते हैं।
‘पूर्व में
नि उपर्स के साथ
रूप धतु’ का
अर्थ ‘ज्ञान
का जनक व्यापार’ है यह भी स्पष्ट
करते हैं साथ ही
यहाँ प्राचीन नैयायिको
के मत का उल्लेख
करते हुए बताते
हैं कि इन प्राचीन
आचार्यों के मत
में कर्म को बताने
वाले आख्यात के
होने की स्थिति
में ‘पूर्व
में नि उपर्स के
साथ रूप धतु’ का अर्थ मात्रा
‘व्यापार’ ही होता है।
यहाँ कर्म अर्थ
में आये आख्यात
‘त’ का अर्थ
‘प्रतिपत्ति’ या ‘ज्ञान’ माना जाता है।
इस सन्दर्भ में
गदाध्रभट्टाचार्य
द्वारा प्रणीत
व्युत्पत्तिवाद
ग्रन्थ के द्वितीया
कारक का भी आचार्य
बलदेवी में स्मरण
करते हैं। दोनों
ही स्थितियों में
उपर्युक्त पंचमी
विभक्ति के अर्थ
‘उसके ज्ञान
से जन्य जिज्ञासा
की अध्ीनता’ का अन्वय या
सम्बन्ध श्री गङ्गेश
में समवाय सम्बन्ध
से रहने वाली कृति
में करते हैं ।
यहाँ अध्याहृत
‘मया’ शब्दमें
विद्यमान अस्मत्
शब्द का अर्थ श्री
गङ्गेश हैं एवं
अस्मत् शब्द के
बाद स्थित तृतीया
विभक्ति का अर्थ
गङ्गेश में समवाय
सम्बन्ध से विद्यमान
कृति है, यह विशेष
रूप से समझ लेना
आवश्यक है। आगे
अर्थ को और भी स्पष्ट
करते हुए टीकाकार
कहते हैं कि आख्यात
‘त’ में
जो ‘वर्तमान
काल की समीपता’ रूप अर्थ को
बताने के लिये
‘लट्’ अंश
है उसका वर्तमान
सन्दर्भ में अर्थ
‘वर्तमान काल
के उत्तर ;बादद्धकाल
में वृत्तित्व’ है।
इस अर्थ का सम्बन्ध
श्रीगङ्गेश की
आत्मा में समवाय
सम्बन्ध से रहने
वाली कृति उत्साह
या प्रयत्न में
किया जाता है।
पुनः इस मणिकार
में विद्यमान कृति
का अन्वय जन्यता
सम्बन्ध से धतु
के अर्थ व्यापार
में होता है तथा
इस व्यापार का
अन्वय या सम्बन्ध
जन्यता सम्बन्ध
से ही आख्यात ‘त’ के अर्थ
प्रतिपत्ति में
किया जाता है और
अन्ततः इस प्रतिपत्ति
या बोध् का ‘विषयता’ संसर्ग या सम्बन्ध
से ‘हेत्वाभास’ पद के अर्थ हेत्वाभास
अर्थात् दुष्ट
हेतु में अन्वय
कर, एक लध्ु भूत
वाक्य से भी एक
विस्तृत अर्थ का
बोध् सहज ही कर
लिया जाता है ।
चिन्तामणि
के प्रथम वाक्य
से होने वाले शाब्दबोध्
में निरूप्यन्ते
इस पद में विद्यमान
‘त’ इस प्रत्यय
मे स्थित
‘लट्’ इस
अंश के अर्थ ‘वत्र्तमानकालोत्तरकालवृत्तित्व’ का अन्वय या
समबन्ध ‘मया’ इस पद में विद्यमान
‘तृतीया
विभक्ति’ के
अर्थ- आचार्य गङ्गेश
में समवाय सम्बन्ध
से रहने वाली ‘कृति या प्रयत्न’ में करना समुचित
नहीं है,
क्यों कि ‘प्रत्यय
अपने अर्थ का बोध्
प्रकृति के अर्थ
के साथ सम्बद्ध
हो कर ही कराते
है’ं ऐसा व्याकरण
शास्त्र का नियम
है। इस प्रकार
‘लट्’ के
अर्थ ‘वत्र्तमानकालोत्तरकालवृत्तित्व’ का अन्वय या
समबन्ध ‘मया’ इस
पद में विद्यमान
‘तृतीया विभक्ति
या प्रत्यय’ के अर्थ- आचार्य
गङ्गेश में समवाय
सम्बन्ध से रहने
वाली ‘कृति
या प्रयत्न’ के साथ नहीं
होता है। यहाँ
यह प्रश्न होता
है कि पिफर ‘लट्’ के अर्थ ‘वत्र्तमानकालोत्तरकालवृत्तित्व’ का अन्वय या
समबन्ध किस पद
के अर्थ के साथ
होगा? इस का समाधन
करते हुए आचार्य
बलदेव स्पष्ट करते
हैं कि ‘लट्’ के अर्थ ‘वत्र्तमानकालोत्तरकालवृत्तित्व’ का अन्वय तिघर्थ
ज्ञान में होगा।
यह उचित भी प्रतीत
होता है क्यों
कि ‘त’ इस
अंश में लट् के
साथ ही तिघ् के
होने अन्वय सहज
ही सम्भव हो जाता
है, साथ ही शिष्यों
की जिज्ञासा के
बाद ज्ञान ;हेत्वाभास
काद्ध होने से
अन्वय में कोई
बाध भी दृष्टि
गोचर नहीं होती
है । साथ ही इसी
तिघर्थ ज्ञान के
साथ, सुप् के अर्थ
अर्थात् मया में
विद्यमान तृतीया
विभक्ति
के अर्थ कृति का
भी अन्वय जन्यत्व
सम्बन्ध से हो
जायेगा। पर इसके
विपरीत मया में
विद्यमान तृतीया
विभक्ति
के अर्थ अर्थात्
सुप् के अर्थ- कृति
में, तिघ के अर्थ
ज्ञान का सम्बन्ध
या अन्वय मान्य
नहीं होगा ।
ब0 यदि यह
कहें कि ‘प्रत्यय
अपने अर्थ का बोध्
प्रकृति के अर्थ
के साथ सम्बद्ध
हो कर ही कराते
है’ं ऐसा नियम मानने
वालों के पक्ष
में ‘लट्’ के अर्थ ‘वत्र्तमानकालोत्तरकालवृत्तित्व’ का अन्वय या
समबन्ध, पूर्व
में नि उपर्स के
साथ जो
‘रूप धतु’ स्वरूप प्रकृति
है, उसके अर्थ ‘ज्ञान का जनक
व्यापार’ के
साथ कर लेंगे तो
यह कथन समुचित
नहीं है।
क्यों कि हम ‘भीमः पचति’ इस तरह के वाक्य
का प्रयोग तब तक
ही करते हैं जब
तक भीम चावल आदि
को पकाने
को प्रयास या यत्न
करता है। यद्यपि
भीम के चावल आदि
के पकाने में विशेष
प्रयास के पूरा
हो जाने के बाद
भी चूल्हे
पर कुछ समय पात्रा
होता है तथा चावल
में पाक को सम्पन्न
करने वाली क्रिया
भी ;व्यापारद्ध
होती रहती है पिफर
भी इस अवध्
िमें दूर बैठे
पाचक भीम में चावल
पकाने का प्रयास
या यत्न विशेष
तो नहीं होता है
जिसके कारण ‘पचति भीमः’ यह
वाक्य प्रयुक्त
नहीं होता है।
इस प्रकार
के प्रामाणिक लोक
व्यवहार को एक
और उदाहरण से समझ
सकते हैं। जब कोई
छात्रा साइकिल
चला रहा
होता है तब उसका
एक विशेष प्रकार
का प्रयास स्पष्ट
रूप में देखा जाता
है। इस प्रयास
का अनुभव करते
हुए ही
‘छात्राः द्विचक्रिकां
चालयति’ ;छात्रा
सायकिल चला रहा
हैद्ध इस प्रकार
का वाक्य प्रयोग
होता है। तथा पर्वतीय
क्षेत्राों में
एक ऐसी
भी स्थिति उपस्थित
होती है जब मार्ग
नीचे की ओर नत होता
है तब उस छात्रा
की सायकिल वेग
से चलती तो है पर कोई
भी व्यक्ति यह
नहीं कहता कि छात्रा
सायकिल चला रहा
है अपितु यही कहता
है कि साककिल स्वयं
चल रही है
अर्थात् छात्रा
के बिना प्रयास
के भी सायकिल चल
रही होती है।
इस प्रकार
के व्यवहारों के
आधर पर यह सिद्ध
होता है कि ‘भीमः
पचति’ इस प्रकार
के वाक्य में ‘पच्’ धतु
अर्थात्
प्रकृति के अर्थ
‘पाक को उत्पन्न
करने वाले व्यापार’ में ‘लट्’ प्रत्यय के
अर्थ ‘वर्तमानकालवृत्तित्व’ का अन्वय नहीं
होता है
अपितु कर्ता को
बताने वाले ‘ति’ ;तिघ्द्ध
के अर्थ प्रयास,
यत्न या कृति में
ही अन्वय प्रामाणिक
अनुभव के आधर पर सर्वमान्य
है।
‘प्रत्यय
अपने अर्थ का बोध्
प्रकृति के अर्थ
के साथ सम्बद्ध
हो कर ही कराते
है’ं ऐसा नियम मानने
वालों के पक्ष में ‘लट्’ के
अर्थ ‘वत्र्तमानकालोत्तरकालवृत्तित्व’ का अन्वय या
समबन्ध, पूर्व
में नि उपर्स के
साथ जो
‘रूप धतु’ स्वरूप
प्रकृति है, उसके
अर्थ ‘ज्ञान
का जनक व्यापार’ के साथ करने
पर, भीम के चावल
आदि के पकाने में
विशेष प्रयास
के पूरा हो जाने
के बाद भी चूल्हे
पर कुछ समय के लिये
स्थित पात्रा में
चावल के पाक को
सम्पन्न करने वाली
क्रिया
;व्यापारद्धकी
बेला में ‘भीमः
पचति’ इस प्रकार
के प्रामाणिक वाक्य
प्रयोग रूप व्यवहार
की आपत्ति होगी।
सिद्धान्त
पक्ष में यह आपत्ति
नहीं होगी क्यों
कि इस पक्ष में
‘लट्’ इस
अंश के अर्थ ‘वत्र्तमानकालोत्तरकालवृत्तित्व’ का अन्वय या
समबन्ध ‘मया’ इस पद में विद्यमान
‘तृतीया विभक्ति’ के अर्थ- आचार्य गङ्गेश में
समवाय सम्बन्ध
से रहने वाली ‘कृति या प्रयत्न’ में होता है
जो कि भीम के चावल
आदि के पकाने में
विशेष प्रयास
के पूरा हो जाने
के बाद भी चूल्हे
पर कुछ समय के लिये
स्थित पात्रा में
चावल के पाक को
सम्पन्न करने वाली
क्रिया
;व्यापारद्धकी
बेला में नहीं
होता है।
इस आपत्ति
का निरास करने
के लिये यह कहना
कि पाक को पैदा
करने वाले व्यापार
में वर्तमानकालवृत्तित्व
का शाब्दबोध् उत्पन्न
करने के लिये ‘पचति’ इस
वाक्य का ज्ञान
कारण नहीं हैऋ
इस वाक्य का ज्ञान
तो भीम आदि
में समवाय सम्बन्ध
से रहने वाली कृति
में वर्तमानकालवृत्तित्व
का शाब्दबोध् उत्पन्न
करने के लिये कारण
है। इस
प्रकार विशेष कार्यकारणभाव
की कल्पना भी समुचित
नहीं है। क्यों
कि इस कल्पना के
बाद भी ‘प्रत्यय
अपने अर्थ का बोध्
प्रकृति के अर्थ
के साथ सम्बद्ध
हो कर ही कराते
है’ं ऐसा नियम
प्रस्तुत सन्दर्भ
में मान्य नहीं
हो सकता।
प्रस्तुत
सन्दर्भ में ‘‘अथ तत्त्वनिर्णयविजयप्रयोजकत्वात्
मया निरूप्यन्ते
हेत्वाभासाः’’ इस वाक्य से
चिन्तामणि में
आचार्य
गङ्गेश हेत्वाभास
के निरूपण की प्रतिज्ञा
कर रहे हैं यह दीधिति
व्याख्या के प्रणेता
श्रीरघुनाथशिरोमणि
का दृढ अभिमत
है। यह अभिमत, ‘प्रत्यय अपने
अर्थ का बोध् प्रकृति
के अर्थ के साथ
सम्बद्ध हो कर
ही कराते है’ं ऐसा नियम स्वीकार
करने पर असङ्गत
होने लगेगा।
प्रतिज्ञा
शब्द का अर्थ ‘स्वोत्तरकालीनकृतिजन्यत्वप्रकारकबोधनुकूलव्यापार’ माना जाता है।
और यह व्यापार
वाक्य प्रयोग
रूप होता है। इस
वाक्य का ही उल्लेख
सामान्यनिरुक्ति
के प्रारम्भ में
‘‘अथ तत्त्वनिर्णयविजयप्रयोजकत्वात्
मया निरूप्यन्ते
हेत्वाभासाः’’ इस प्रकार किया
गया है।
वर्तमान काल के
बाद अगले ही क्षण
में उत्पन्न अदम्य
उत्साह कृति या
प्रयास
से अपने शिष्यों
की जिज्ञासा को
शान्त करने के
लिये उत्पन्न जो
ग्रन्थ-लेखन या
अध्यापन रूप क्रिया
या व्यापार, इस व्यापार
विशेष से ;हेत्वाभास
या दुष्ट हेतुओं
काद्ध हुआ जो बोध्
या प्रतिपत्ति, उसके विषय
हेत्वाभास हैं’ इस प्रकार इस प्रतिज्ञा
वाक्य का अर्थ
निष्पन्न होता
है। इस प्रतिज्ञा
में लट् के अर्थ
‘वत्र्तमानकालोत्तरकालवृत्तित्व’ का अन्वय या
समबन्ध
‘मया’ इस पद में विद्यमान
‘तृतीया विभक्ति’ ;प्रत्ययद्धके
अर्थ- आचार्य
गङ्गेश
में समवाय सम्बन्ध
से रहने
वाली ‘कृति
या प्रयत्न’ में ही होता
है। पफलतः ‘प्रत्यय
अपने अर्थ का बोध्
प्रकृति के अर्थ
के साथ सम्बद्ध
हो कर ही
कराते है’ं इस व्युत्पत्ति
या नियम का अनुपालन
ऐसे स्थलों को
छोड़ कर होगा, यह
स्वीकार कर लिया
जाता है। यही यहाँ व्युत्पत्ति
वैचित्रय शब्द
से अभिप्रेत है।
इस नियम
में वैचित्रय या
सघड्ढोच न करने
पर ‘तस्मात्
पचति’ इस प्रकार
का वाक्य-प्रयोग
न हो यह आपत्ति
भी होगी।
भीम को जब किसी
ने देखा कि वह भोज्य
पदार्थों को ढूँढ
रहे हैं पर कुछ
अनुकूल खाद्य पदार्थ
न मिलने पर पाक
क्रिया
में लग गये तब किसी
ने वाक्य प्रयोग
किया ‘भीमः
भुभुक्षावत्त्वात्
पचति’। इस वाक्य
में भुभुक्षावत्त्व
पद का अर्थ भुभुक्षा
;भूखद्ध पञ्चमी
विभक्ति ;सुप्द्ध
का अर्थ ज्ञानज्ञाप्यत्व
;ज्ञान से जन्य
ज्ञान का विषयत्वद्धहै।
पच् धतु का अर्थ
पाकानुकूल
व्यापार है कर्तृवाच्य
‘ति’ ;तिघ्द्धका
अर्थ भीम में समवाय
सम्बन्ध से रहने
वाली कृति है।
इस कृति का समवाय सम्बन्ध
से भीम में अन्वय
माना जाता है।
यहाँ पञ्चमी विभक्ति
;सुप्द्ध के अर्थ
ज्ञानज्ञाप्यत्व
;ज्ञान से जन्य
ज्ञान का
विषयत्वद्ध का
अन्वय कर्तृवाच्य
‘ति’ ;तिघ्द्धके
अर्थ, भीम में समवाय
सम्बन्ध से रहने
वाली कृति से होता
है। इस प्रकार
अन्वय कर बोध्
तभी सम्भव है, जब
उपर्युक्त व्युत्पत्ति
में वैचित्रय स्वीकार
किया जाय।
यहाँ
यदि ‘सुप्’ के अर्थ का अन्वय
‘तिघ्’ के
अर्थ के साथ मान्य
है तो ‘लट्’ ;तिघ्द्ध इस
अंश के अर्थ ‘वत्र्तमानकालोत्तरकालवृत्तित्व’ का अन्वय
या समबन्ध ‘मया’ इस पद में विद्यमान
‘तृतीया विभक्ति’ के अर्थ- आचार्य
गङ्गेश
में समवाय सम्बन्ध
से रहने वाली ‘कृति के साथ
भी सर्वमान्य होगा
ही यह सहज ही सिद्ध
हो जाता है ।
इतने विवेचन
से यह सिद्ध होता
है कि हेत्वाभास
अर्थात् दुष्ट
हेतु तत्त्वनिर्णय
एवं विजय की प्राप्ति
में अनुपम भूमिका
का निर्वाह करते
हैं और हमें इनके
ज्ञान के लिये
विशेष रूप से प्रयत्नशील
होना चाहिये ।