ISSN 0976-8645

 

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‘‘नैषधीयचरितम् में तिङ् प्रत्ययों की व्यंजकता’’

सुश्री स्मिता सारस्वत

शोधच्छात्रा (संस्कृत विभाग)

                                                                                                                                जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय,

                                                                                                                                09929993095 जोधपुर (राज.)

 

 

          वृहत्त्रयी में परिगणित नैषधीयचरितम् संस्कृत साहित्य की अनुपम और विलक्षण कृति है। इसे विद्वानों की परमौषधि के रूप में माना जाता है। जैसा कि कहा गया हैः- नैषधं विद्वदौषधम्। वृहत्त्रयी में अन्य ग्रन्थद्वय के रूप में ‘किरातार्जुनीयम्’ और ‘शिशुपालवधम्’ की गणना होती है। शिशुपालवधम् के रचयिता महाकवि ‘माघ’ और किरातार्जुनीयम् के रचयिता ‘श्री भारवि’ है। वस्तुतः दोनों ही ग्रन्थ उत्कृष्ट कोटि के और विलक्षण हैं। किन्तु प्रसिद्ध है कि श्रीहर्ष द्वारा नैषधीयचरितम् की रचना के उपरान्त ये दोनों महाकाव्य गौण हो जाते हैं।

तावद् भा भारवेर्भाति यावन्माघस्य नोदयः ।

उदिते नैषधे काव्ये क्वमाघः क्व च भारविः ।।

 

        श्री हर्ष ने नैषधीयचरितम् में राजा नल और दमयन्ती की कथा को बाईस सर्गों में निरूपित किया है। कल्पनाओं का संचार इस प्रकार का है कि श्रोता और अध्येता दोनों ही सुरा सागर में मग्न हो जाते हैं। यह महाकाव्य शृङ्गार रसोद्दीपक हैं। महाकवि श्रीहर्ष ने नैषधीयचरितम् में न केवल नल दमयन्ती की कथा को अपना आधार बनाया प्रत्युत समाज और लोक से सम्बद्ध अनेक परम्पराओं, आश्रम व्यवस्था, पुरुषार्थ चतुष्टय, षोडश संस्कार और भारतीय संस्कृति को भी सम्यक् रूप से निरूपित किया है।

        संस्कृत साहित्य में काव्य का ऐसा कोई भी रूप उपलब्ध नहीं होता जो ध्वनि से विच्छिन्न होता है।

यत्रार्थः शब्दो बा तमर्थमुपसर्जनीकृस्विार्थौ ।

व्यङ्क्ता काव्यविशेषः स ध्वनिरिति सूरिभिः कथितः ।। (ध्वन्यालोक 1.13)

 

आचार्य आनन्दवर्धन ध्वनि को काव्य की आत्मा और त्यंजना को काव्य का प्राण मानते हैं। वस्तुतः ध्वनि की सत्ता उपसर्ग से लेकर प्रत्यय पर्यन्त सम्पूर्ण महाकाव्य में होती है। कहीं कहीं ध्वनि एक पूरे पद से न निकलकर केवल एक अंश मात्र से ध्वनित होती है। पद का संयोजन प्रकृति और प्रत्यय के संयोग से होता है। प्रकृति के दो भेद हैः- पद्ध नाम प्रकृति पपद्ध धातु प्रकृति। उसी प्रकार प्रत्यय विविध प्रकार के माने जाते हैं। यथा- सुप, तिङ्, कृत् एवं तद्धित। प्रत्यय अनेकार्थवाची होते हैं और प्रकृति से संयुक्त होकर नवीन शब्दोत्पत्ति करते हैं और वे नवीन शब्द विशेष अर्थ की प्रतीति कराते हैं। आनन्दवर्धनाचार्य उस प्रकार के विशेष अर्थ (व्यंजकता) को प्रस्तुत श्लोक के माध्यम से स्पष्ट करते हैं-

न्यक्कारो ह्यमेव मे यदरयस्तत्राप्यसौ तापसः

सोऽप्यत्रैव निहन्ति राक्षसकुलं जीवत्यहोरावणः ।

धिग् धिक् शक्रजितं प्रबोधितवता किं कुम्भकर्णेन वा,

स्वर्गग्रामटिकाविलुण्ठनवृथोच्छूनैः किमेभिर्भुजैः ।।

 

        यहाँ मे पद से वक्ता रावण का पूर्वकृत् इन्द्रविजय आदि लोकोत्तर चरित्र तथा सम्बन्ध बोधक षष्ठी विभक्ति से शत्रुओं के साथ अपने सम्बन्ध का अनौचित्य द्योतित होता है। अरयः पद इसी सम्बन्ध-अनौचित्य की अतिशयता का बोध कराता है। तापसः पद मत्वर्थ में अण प्रत्यय का प्रयोग होकर निष्पन्न हुआ है। अतएव यह तद्धितान्त पद रावण के पुरुषार्थ के अभाव को सूचित कराता है। निहन्ति औरा जीवति पद तिङन्त हैं और समस्त जगत को कम्पित करने वाले रावण की दयनीयता को द्योतित कराते हैं। अर्थात् अतिशय पराक्रमी और सामर्थ्यवान् होने पर भी रावण एक तपस्वी से पराजित हो रहा है। इस प्रकार व्यंजकता काव्य रचना के सौन्दर्य को अभिव्यक्त करती है और व्यङ्ग्यों का सौष्ठव ही सौन्दर्य का एक मात्र निदान होता है। चूंकि नैषधीचयरितम् महाकाव्य शृङगार रस प्रधान है। अतः इनमें सौन्दर्य की पराकाष्ठा देखने को मिलती है और इस पराकाष्ठा को तिङ्गकृत्, तद्धित, उपसर्ग, निपात, सुप् आदि प्रत्ययों के विशिष्ट प्रयोग और अद्भुत बना देते हैं। यथा कवि ने महाकाव्य के प्रत्येक सर्ग की सुखद परिणति करते हुये सर्ग के अन्त में आनन्द पद का प्रयोग किया है। आनन्द पद आङ् उपसर्ग पूर्वक टुनदि समृद्धौ, समृद्धिप्रजापश्वादि धातु से घञ् प्रत्यय का संयोग होकर निष्पन्न होता है। जिसका अर्थ है प्रसन्नता, हर्ष, सुख, ईश्वर, परमात्मा, शिव इत्यादि। इसका तात्पर्य है कि नैषधीयचरितम् परमात्मा प्राप्ति के सुख के समान आनन्दाधायक और कल्याणकारी महाकाव्य है। स्वयं महाकवि इस बात को प्रथम श्लोक से परिपुष्ट कर देते हैंः-

निपीय यस्य क्षितिरक्षिणः कथास्तथाद्रियन्ते न बुधाः सुधामापि ।

नलः सितच्छत्रितकीर्तिमण्डलः स राशीरासीन्महसां महोज्ज्वलः ।।

 

        श्लोक में पठित निपीय पद कृदन्त है और आर्दियन्ते तिङन्त है। निपीय अर्थात् नितरां आस्वाद्य। नि उपसर्गपूर्वक √पीङ् पाने धातु (दि.ग.1141) से पाणिनि अष्टाध्यायी पठित समानकर्तृकयोः पूर्वकाले (3/4/21) सूत्र से क्त्वा प्रत्यय का नियम है किन्तु समासेऽनञ् पूर्व क्त्वोल्यप् (7/1/37) सूत्र से क्त्वा प्रत्यय का निषेध होकर ल्यप् होने पर निपीय पद निष्पन्न होता है। यदि यहाँ √पीङ् धातु के स्थान पर पाने अर्थ की ही √पा धातु का प्रयोग किया जाता तो निपाय पद निष्पन्न होता। ऐसी स्थिति में निपीय पद से उत्पन्न वैशिष्ट्य की प्राप्ति नहीं होती। चूंकि निपीय और आद्रियन्ते दोनों का कर्ता समान है। अतः निपीय पूर्वकालिक क्रिया है उसका तात्पर्य यह हुआ कि जब तक नलकथा का आस्वादन नहीं किया जाता तब तक उसकी महिमा अज्ञात रहती है किन्तु जो एक बार नल कथा का आस्वादन कर लेता है, उसकी पुनः पुनः नल कथा में प्रवृत्ति होने से अन्यासक्तियाँ छूट जाती है। आद्रियन्ते आङ् उपसर्गपूर्वक √दृङ आदरे (तु.ग. 1411) धातु से आत्मनेपद का रूप है। इसका तात्पर्य है कि नल कथा के आस्वादनोपरान्त अमृत भी गौण है। अर्थात् अमृत दुर्लभ है और नल कथा अमृत से भी श्रेष्ठ है।

        ऐसी स्थिति में अमृत की अपेक्षा नल कथा की अतिशय दुर्लभता और उत्कृष्टता का द्योतन होता है। यही कारण है कि अमृतभोजी देवताओं के हृदय में भी अब अमृत के प्रति आदर नहीं रहा। अतः वे अमृत का तिरस्कार करके नल कथा का पान करने के लिये लोलुप रहते हैं। इसी प्रकार प्रथम सर्ग में ही राजा नल के केशराशि के वर्णन में कवि द्वारा किया गया तिङन्त प्रयोग विशिष्ट अर्थ को व्यांजित करता है।

विभज्य मेरूर्न यदर्थिसात्कृतो न सिन्धुरुत्सर्गजलव्ययैर्मरूः ।

अमानि तत्तेन निजायशोयुगं द्विफालबद्वश्चिकुराः शिरः स्थितम् ।। (1/16)

 

        यहाँ अमानि क्रिया पद विशिष्ट है। √मन ज्ञाने (दि.ग. 1176) धातु से आशंसायांभूतवच्च (3/3/132) सूत्र से आशंसा अर्थ में लुङ् लकार का प्रयोग होकर यह पद निष्पन्न होता है। आशंसा का अर्थ है-अप्राप्त की अभिलाषा। नल ने दो भागों में बांधे गये अपने केशराशि को अकीर्त्ति स्वरूप समझा क्योंकि वह याचक जन को न तो सुमेरू पर्वत खण्ड-खण्ड करके दे सके और न ही दान के निमित्त सङ्कल्प जल के रूप में समुद्र के जल को समाप्त कर सके। यहाँ नल की प्रजा के प्रति अतिशय उदारता और अद्वितीय दानदाता बनने की अभिलाषा व्यक्त होती है। सहृदयी व्यक्ति ही अपने दान की गणना नहीं करते। इससे नल का सत्पुरूषत्व व्याण्जित होता है।

 

तदहं विदग्धे तथा तथा दमयन्त्याः सविधे तव स्तवम् ।

हृदये निहितस्तया भवानपि नेन्द्रेण यथापनीयते ।। (2/47)

 

        यहाँ श्लोक में विदधे और अपनीयते पद विशिष्ट हैं। आशंसायांभूतवच्च (3/3/132) सूत्र से दोनों क्रिया पदों में वैकल्पिक वर्तमानकालिक लट् लकार का प्रयोग हुआ है। ये पद हंस की कर्त्तव्यपरायणता, नल के प्रति आदरातिशय और अतिशय कृतज्ञता को अभिव्यक्त करते हैं। हंस को नल से वार्ता करके दमयन्ती के पास जाना है। यह वर्तमान का समीपवर्ती भविष्यत् काल है। अतः ‘वर्तमान सामीप्ये वर्तमानाद्वा’ (3/3/  ) सूत्र से लट् लकार की प्राप्ति थी किन्तु चूंकि हंस भैमी के पास जाकर नल के प्रति उसके हृदय में अनुराग को पुष्ट करेगा। ऐसी उसकी अप्राप्त अभिलाषा है। वहमल का गुणगान उस प्रकार करेगा कि दमयन्ती मन, वचन से नल को ही पति रूप में वरण करेगी। जिसे हटा पाना इन्द्र के लिये भी सम्भव नहीं है तो अन्य देवता और मनुष्यों के लिये कैसे सम्भव होगा ? क्योंकि पतिव्रता नारी अपने पतिव्रत्य का खण्डन नहीं करती। हंस के कथन में इस प्रकार की आशंसा व्यक्त होने से आशंसायां भूतवच्च (3/3/132) सूत्र से वैकल्पिक लट् लकार ही सम्यक् प्रतीत होता है। उस प्रकार हंस द्वारा सहायक बनने पर भैमी नल के लिये दुःसाध्य न होकर सुलभ हो जाएगी। यहाँ तिङन्त पदो ंके प्रयोग से हंस की परोपकारिता द्योतित होती है।

अपि लोकयुगं दृशावपि श्रुतदृष्टा रमणीगुणा अपि ।

श्रुतिगामितया दमस्वसुर्व्यतिभाते सुतरां धरापते ।। (2/22)

 

        श्लोक में प्रयुक्त व्यातिभाते क्रिया पद का सम्बन्ध एकवचनान्त लोकयुगम्, द्विवचनान्त दृशौ और बहुवचनान्त रमणीगुणाः तीनों पदों से है। इस पद की व्युत्पत्ति वि उपसर्गपूर्वक √भा दीप्तौ (अ.ग. 1051) धातु से विनिमय अर्थ में ‘कर्तरि कर्मव्यतिहारे’ (1/3/14) सूत्र से आत्मनेपद में होती है। उसका अर्थ है ‘परस्परोत्कर्षेण विनिमयेन वा भासते’। उस प्रकार श्लोक का अर्थ हो जाता है कि दमयन्ती का मातृकुल और पितृकुल दोनों प्रसिद्ध हैं। परस्पर एक दूसरे से व्यतिभासित हैं। भैमी का दक्षिण नेत्र वामनेत्र की और वामनेत्र दक्षिण नेत्र की शोभा को स्वीकारता है। उस प्रकार जो गुण दमयन्ती में हैं वे शास्त्र दृष्ट हैं और जो शास्त्रों में हैं वे दमयन्ती में भी है। इससे दमयन्ती की सौन्दर्यातिशयता का बोध होता है। साथ ही यह भी ध्वनित होता है कि दमयन्ती सामुद्रिक शास्त्र के लक्षणों से परिपूर्ण है और सर्वगुण सम्पन्न है।

तस्यैव वा यास्यसि किं न हस्तं दृष्टं मनः केन विधेः प्रविश्य ।

अजातपाणिग्रहणासि तावदू्रपस्वरूपातिशायश्रयश्च ।। (3/47)

 

        यहाँ यास्यसि क्रियापद में √या प्रापणे धातु (अ.ग. 1049) से अभीष्ट की सिद्धि गम्यगान होने के अर्थ में ‘लिप्स्यमानसिद्धौच (3/3/7)’ सूत्र से वैकल्पिक लृट् लकार का प्रयोग हुआ है। हंस दमयन्ती को नल प्राप्ति की दुर्लभता से अवगत कराते हुये कहता है कि भले ही वह दमयन्ती के प्रयोजन सिद्धि में सहायक न हो लेकिन दमयन्ती अपने अद्भुत सौन्दर्य मात्र से नल को वशीकृत करने में समर्थ है। अतः वह नैराश्य को प्राप्त न हो। ऐसी सम्भावना अभिव्यक्त होती है। इससे दमयन्ती का सौन्दर्यातिशय और नल रूप अभीष्ट की सिद्धि गम्य है। अर्थात भविष्य में दमयन्ती को नल प्राप्ति अवश्य होगी।

        उसी प्रकार अग्रिम श्लोक में लिङ् लकार के प्रयोग से कवि ने दमयन्ती के अमर्ष और भविष्य में नल दमयन्ती के मिलन की सम्भावना को अभिव्यक्त किया है।

अभ्यर्थनीयः स गतेन राजा त्वया न शुद्धान्तगतो मदर्थम् ।

प्रियास्य दाक्षिण्यबलात्कृतो हि तदोदयेदन्यवधूनिषेधः ।। (3/92)

 

        यहाँ उदयेत् पद में √इण् गतौ (अ.ग. 1045) धातु से लिङ् लकार का प्रयोग हुआ है। विधिनिमन्त्रणमन्त्रणाधीष्ट सम्प्रश्न प्रार्थनेषु सूत्र से विधि, निमन्त्रण, आमन्त्रण, अधीष्ट, सम्प्रश्न अर्थों में और ‘अनवक्लृप्त्यमर्षयोच किं वृत्ते ऽपि’ (3/3/145) सूत्र से अनवक्लृप्ति, अमर्ष अर्थों में लिङ् लकार का प्रयोग होता है। अपने से छोटे को जब किसी कार्य में लगाया जाए तो उसे प्रवर्तना कहते हैं। विधि, निमन्त्रणा प्रवर्तना के भेद हैं। यदि विधि अर्थ में उस पद को व्युत्पन्न माना जाए तो दमयन्ती और हंस का स्वामी-सेवक भाव द्योतित होता है जो कि भविष्यकालिक नल दमयन्ती के मिलन की सम्भावना को व्यक्त करता है। हंस नल का सेवक है। अतः दमयन्ती प्राप्ति के उपरान्त वह भैमी का सेवक भी होगा। इस पद को अमर्ष अर्थ में लिङ् लकारान्त व्युत्पन्न मानने पर दमयन्ती का अपनी सपत्नी रानियों से अमर्ष और राजा नल के प्रति अनुरागतिशय व्यंजित होता है क्योंकि यदि हंस दमयन्ती के दौत्य कर्म को स्वीकार कर अन्य रानियों के सम्मुख भैमी के विषय में कथन करता है तो ऐसी सम्भावना व्यक्त होती है कि नल हंस के कथन को अनसुना कर दे। यह दमयन्ती के असहनीय होगा ।

 

जनुरधत्त सती स्मरतापिता हिमवतो न तु तन्महिमादृता ।

ज्वलति भालतले लिखितः सतीविरह एव हरस्य न लोचनम् ।। (4/45)

 

        यहाँ प्रयुक्त ज्वलति पद भ्वादि गण पठित √ज्वल दीप्तौ (804, 831) धातु से लट् लकार में निष्पन्न होता है। श्रीहर्ष ने शिव-पार्वती के दृष्टान्त को आधार बनाकर दमयन्ती की काम व्यथा की दुरूहता को अभिव्यक्त किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि सती की विरहाग्नि शिव से देखी न गई और इसलिये विधाता ने शिवजी के ललाट पर तृतीय नेत्र के रूप में कामाग्नि को प्रज्ज्वलित कर दिया। इस प्रकार की स्थिति होने से भैमी का कथन है कि यदि शिव और सती जगत के माता पिता होकर भी विरह से व्यथित हैं तो उसका तो व्यथित होना स्वाभाविक है। इस प्रकार यह तिङन्त पद प्रकरण से दमयन्ती की विरहातिशयता और प्रकारान्तर से शिव के क्रोधातिशय को व्यंजित करता है।

असितमेकसुराशितमप्यभून्न पुनरेवं विधुर्विशदं विषम् ।

अपि निपिय सुरैर्जनितक्षयं स्वयमुदेति पुनर्नवमार्णवम् ।। (4/61)

 

        यहाँ स्वयमुदेति विशिष्ट प्रयोग है। अतिशयार्थक उद् उपसर्ग से √इण् गतौ धातु से गर्हा अर्थ में लट् लकार का प्रयोग चन्द्रमा की निन्दनीय स्थिति और कुटिलता को सूचित कराता है। अर्थात् सहोदर होने पर भी कालकूट विष की अपेक्षा शुभ्रविष तीक्ष्ण और कष्टप्रदायक है।

सेयं मृदुः कौसुमचापयष्टिः स्मरस्य मुष्टिग्रहणार्हमध्या ।

तनोति नः श्रीमदपाङ्गमुक्तां मोहाय या दृष्टिशरौघवृष्टिम् ।। (7/28)

 

        श्लोक में वृष्टिं तनोति पद का अभिधेयार्थ है -

        ‘नेत्रबाणसमूहवर्षणं विस्तारेण करोति’। √तनु विस्तारे धातु से लट् लकार में आत्मनेपद का यह प्रयोग दमयन्ती के दृष्टिपात मात्र की कामोद्दीपकता की सूचना देता है। कृश कटि वाली दमयन्ती मानो मोहित करने के लिये दृष्टि रूप बाणों की वर्षा करती है। नेत्रों से बाण वर्षा कैसे सम्भव है ? अतः यहाँ मुख्यार्थ बाध होकर दमयन्ती के कटाक्षों की तीक्ष्णता व्यंजित होती है। यदि √तनु विस्तारे धातु की अपेक्षा दृष्टिं करोति प्रयोग किया जाता तो यह भाव प्रकट नहीं होता। उसी प्रकार नैषधकार के अद्भुत प्रयोग सामान्य अर्थों की अपेक्षा विशिष्ट अर्थों की प्रतीति कराते हैं। यथा’-

 

तत्कालमानन्दमयी भवन्ती भवत्तरानिर्वचनीयमोहा ।

सा मुक्तसंसारिदशारसाभ्यां द्विस्वादमुल्लासमभुङ्क्तमिष्टम् ।। (8/15)

 

        यहाँ अभुङ्क्त पद में √भुज पालनाभ्यवहारयोः, अभ्यवराहो भोजनम् धातु से लुङ् लकार में ‘भुजोऽनवने’ (1/3/11) सूत्र से आत्मनेपद का प्रयोग हुआ है। पालनार्थ में परस्मैपद और उपभोग अर्थ होने पर आत्मनेपद में इस धातु का प्रयोग होता है। दमयन्ती ने दुर्लभ नल दर्शन के लाभ से परमानन्द स्वरूप आनन्द को और अतिशय सुरक्षित अन्तःपुर में नल प्रवेश कैसे सम्भव है ? इस प्रकार की मोह रूप अज्ञानता से मुक्त और संसारी दोनों अवस्थाजन्य आनन्द का भोग किया जो अद्भुत है क्योंकि मुक्त व्यक्ति संसारी नहीं हो सकता और संसारी व्यक्ति मुक्त नहीं हो सकता। इस प्रकार यहाँ दमयन्ती का वैदग्ध्य, सतीत्व और उसके चित्त की पवित्रता का द्योतन होता है।

        नल के दौत्य कर्म काल में भावभिभूत होने से दमयन्ती के सम्मुख ‘मम नलस्य’ (9/120) ऐसा कभन कर देने पर पुनः दौत्य कर्म का बोध करके नल अपनी भूल को सुधारने के लिये जो कृत्रिम वाक्य रचना करते हैं वह भी विलक्षण प्रतीत होती है।

मुनिर्यथात्मानमथ प्रबोधवान् प्रकाशयन्तं स्वमसावबुध्यत् ।

अपि प्रपन्नां प्रकृतिं विलोक्य तामवाप्तसंस्कारतयासृजद्गिरः ।। (9/121)

 

        यहाँ असृजत् पद नल के कथन की कृत्रिमता का बोध कराता है। असृजत् से तात्पर्य है उवाच किन्तु यह प्रयोग न करके कवि ने √सृज विसर्गे धातु का प्रयोग किया। इससे नल का अपराधबोध से ग्रस्त होना ध्वनित होता है। नल द्वारा ‘देवों’ में से ही किसी एक का वरण करना दमयन्ती की नियति है। अन्य कोई उपाय नहीं है। ऐसा सुनकर दमयन्ती अत्यधिक नैराश्य को प्राप्त होकर विलाप करने लगी किन्तु ‘मम नलस्य’ इस प्रकार मोहवश कहे गये शब्द को सुनकर प्रकृतिस्थ हो गई। तात्पर्य यह है कि उसका विलाप और दुःख शान्त हो गया, जिसे देखकर नल को अपनी भूल का ज्ञान हुआ और पुनः स्वयं को दूतधर्म के दायित्व निर्वाह हेतु बाध्य करते हुये उसने कालानुरूप वचन कहे।

        स्वयंवरोपस्थित राजाओं के परिचय में कवि ने चित्तं हरिष्यति (11/38), न बिभाय (11/68), उपदां वितरिष्यति (11/69), मृषोद्यमस्तु (11/78), जयन्ति (11/87) इत्यादि तिङन्त पदों के प्रयोग से उनके समृद्धि, यश, ऐश्वर्य, अपार धन सम्पदा एवं राजलक्ष्मी की अपेक्षा दमयन्ती की श्रेष्ठता को व्यक्त किया है। साथ ही वक्त्रम् अवक्रयत् (12/68), स्पृशन्तु (12/78) पद दमयन्ती की उन राजाओं के प्रति अनास्था को द्योतित कराते हैं। पिष्टं पिपेष (13/19) पद दमयन्ती की देवों में अरुचि का द्योतक है। इसी प्रकार पंचनली वर्णन (13/33) करते हुये भी कवि द्वारा अद्भुत पद संयोजना के आधार पर देवी सरस्वती के मुख से निष्पक्ष होकर देवों और नल के भेद को स्पष्ट किया गया है। देव विषयक भेद ज्ञात होने पर नल वरण को उद्यत हुई दमयन्ती के लिये आनयति स्म (14/44) अनुकम्पां अर्हति (14/39), नुनुदे (14/36) आदि पद उसकी लज्जातिशयता, विनम्रता और देवों के प्रति आदरातिशय को व्यंजित करते हैं क्योंकि व्यक्ति देवकृपा प्राप्त करके ही अपने अभीष्ट को सफलतापूर्वक पा सकता है। वैवाहिक काल में मङगलगान का उच्चचार (14/49), वितानताम् अनीयन्त (15/14), न आच्छादि (15/17) न ममौ (15/18) इत्यादि पदों से उत्सवों में बजाये जाने वाले वाद्यों और परम्पराओं का अनुकूल वर्णन प्रस्तुत किया गया है।

        कलि स्वयंवर में समयानुकूल पहुँच न पाने पर क्षुब्ध हो जाता है। कलि वर्णन में कवि उपजीवन्ति (17/32) पद का प्रयोग कर मोह को काम, क्रोध और लोभ के आश्रयदाता के रूप में प्रस्तुत कर गृहस्थ की उपमा देते हैं। जिसका तात्पर्य है कि मोहग्रस्त हुआ व्यक्ति विवेक शून्य हो जाता है और काम, क्रोध, लोभ जैसे अनाचार से विलग नहीं रह पाता। अतः कवि का लोक सन्देश दिया जाना व्यक्त होता है कि मोह के वशीभूत न होकर व्यक्ति को स्वधर्म का पालन करना चाहिये अन्यथा अनाचार को रोका नहीं जा सकता। नल को दमयन्ती से विच्छेद करवाने की अभिलाषा से कलि नल के राज्य में आता है किन्तु उसे वहाँ प्रश्रय नहीं मिलता। इससे राजा नल की धर्माचारिता और सर्वत्र धर्म का व्याप्त होना द्योतित होता है। किन्तु कलि असूयावशात् प्रतिज्ञा करता है कि वह नल को दमयन्ती और पृथ्वी दोनों से विच्छिन्न कर देगा और अपने अधीन करेगा ताकि उसे देवों से धृष्टता का परिणाम ज्ञात हो सके।

प्रतिज्ञेयं नले विज्ञाः । कले विज्ञायतां मम ।

तेन भैमीं च भूमिं च त्याजयामि जयामि तम् ।। (17/137)

 

        यहाँ त्याजयामि और जयामि दोनों क्रिया पद समीपवर्ती भविष्यत् काल के अर्थ में वर्तमानकालिक लङ् लकार से निष्पन्न होते हैं। ये प्रयोग नल दमयन्ती के वैवाहिक जीवन में भविष्यकालिक अनिष्ट की सम्भावना को द्योतित करते हैं। इससे कलि की क्रूरताध्वनित होती है। उन्नीसवें सर्ग में कवि प्रातःकाल का और बाईसवें सर्ग में सन्ध्या काल का अनिर्वचनीय सौन्दर्य प्रस्तुत करते हैं जिसके अध्ययन से उस वर्णन की सजीवता प्रकट होती है। महाकवि श्रीहर्ष के इस अद्भुत महाकाव्य का अध्येता भी वही अद्भुत प्राणी हो सकता है जो आनन्द और शृङगार रस का वेत्ता हो क्योंकि शृङगार रस प्रधान यह महाकाव्य स्वयं रचयिता के शब्दों में ‘शृङगारामृतशीतगुः’ (नै. 11/130) है। नैषध महाकाव्य के अध्ययन से व्यक्ति निस्सन्देह परमानन्द को प्राप्त कर सकता है।

        नैषध के विषय में बलदेव उपाध्याय का कथन है कि ‘संस्कृत के अपकर्ष काल में आलोचकों की दृष्टि श्री हर्ष के महनीय काव्य की ओर गड़ी हुई है क्योंकि अन्धकार युग को आलोकित करने वाला यह गौरवमय प्रशंसनीय महाकाव्य है।’ इस आधार पर यह कहा जाना अनुचित नहीं होगा कि नैषध अज्ञान-रूप अन्धकार से मुक्ति के लिये ज्ञान रूप प्रकाश-पुंज है। यदि कालिदास की कृतियों को पद्मिनी, भारवि की कृति को शङिखनी (तार्किक स्तर पर) एवं माघ की कृति को चित्रिणी की संज्ञा दी जाती है तो श्रीहर्ष की इस कृति को हस्तिनी की संज्ञा देना अनुचित नहीं होगा क्योंकि यह महाकाव्य न केवल आकृति, स्वरूप, श्लोक सङख्या (2828) में विशद है अपितु ज्ञान का भी विशद स्वरूप है। ज्ञान का अथाह सागर है। अन्ततोगत्वा यह कहा जाना समीचीन होगा कि न केवल वैदुष्य के परिप्रेक्ष्य में अपितु पद लाललित्य की दृष्टि से भी नैषधीयचरितम् महाकाव्य विलक्षण है। इस विषय में विद्वानों का भी ‘नैषधे पदलालित्यम्’ ऐसा मत प्राप्त होता है। इस प्रकार नल के आदर्श चरित्र की स्थापना मात्र ही कवि का प्रयोजन नहीं रहा वरन् ज्योतिषशास्त्र, गणितशास्त्र, पाकशास्त्र, आयुर्वेदशास्त्र इत्यादि अनेक शास्त्रों का समागम और तत्कालीन समाज का चित्रण अद्भुत प्रतीत होता है। महाकाव्य की सहजता और सरलता निःसन्देह ग्रन्थ के अनुशीलन हेतु प्रेरित करती है।

 

 

 

सन्दर्भग्रन्थसूची

1.   किरातार्जुनीयम्

2.   शिशुपालबधम्

3.   ध्वन्यालोकः

4.   नैषधीयचरितम्

5.   साहित्यदर्पणम्