ISSN 0976-8645
बोधिचर्यावतार
में प्रज्ञा-पारमिता
डॉ. प्रभावती
चौधरी,
सह-आचार्य संस्कृत
विभाग,
जयनारायण व्यास
विश्वविद्यालय,
जोधपुर
मनो पुव्वंगमा
धम्मा मनो सेट्ठा
मनोमया
मनसा च पदुट्ठेन भासति
वा करोति
वा।
ततो न दुक्खमन्वेति
चक्क व वहतो पद।
धम्मपद
1.1
भगवान
बुद्ध ने चित्त
या मन को सभी
साधनाओं का केन्द्रबिन्दु
स्वीकार
किया।
चित्त साधना का
पूर्वघटक
एवं
पूर्वगामी है अत:
वह साधना को प्रभावित
करता
है। चित्त समस्त
मानसिक क्रियाओं
का उत्पत्ति
स्थल है, एक ओर वह
चैतसिक क्रियाओं
के साथ
उत्पन्न है तथा
समस्त अच्छाई व
बुराई का स्रोत
है। दूसरी ओर वह
समस्त आन्तरिक-बाह्य
क्रियाओं
का उत्पादक
है।
अत: चित्त का शुद्धीकरण
आवश्यक है। चित्त
शुद्धि मात्र दमन
से नहीं होती अपितु
इसका समाधान
प्रज्ञा में निहित
है।
एक
बार
जेतवन में भगवान्
बुद्ध ने स्थविर
महाकश्यप
को अप्रमाद
के महत्त्व
को समझाते
हुए प्रज्ञा के
सम्बन्ध
में यह गाथा कही
–
पमादं अप्पमादेन
यदा नुदति पंडितो।
पञ्ञापासादमारुय्ह
असोको सोकिनिं
पजं
पब्बतट्ठो
व भुम्मट्ठे
धीरो
बाले अवेक्खति। अप्पमाद
वग्गो -28
सद्धर्म
को समझने
के लिए
चित्त को शान्त
रहना चाहिए, क्योंकि
अशान्त
चित्त को प्रज्ञा
नहीं हो सकती - परिप्लवपसादस्स
पञ्ञा न परिपूरति।
चित्तवग्गो-38
बुद्ध
ने चित्त के नियन्त्रण
हेतु अनेक उपायों
की देशना
की।
बोधिचित्त की
प्राप्ति
से ही बुद्धत्व
की प्राप्ति
नहीं होती अपितु
बुद्धत्व की प्राप्ति
हेतु शिक्षाओं
को व्यवहार
में लाना आवश्यक
है।
इस अभ्यास के दो पक्ष
हैं -उपाय
पक्ष व प्रज्ञा
पक्ष।
उपाय
पक्ष पुण्य सम्भार
का हेतु
होने से पुण्य
एवं प्रज्ञा पक्ष
ज्ञान-सम्भार का
हेतु
होने से ज्ञान
ही कहेजाते
हैं। प्रज्ञा रहित
उपाय एवं उपाय
रहित प्रज्ञा निरर्थक
है,
अत: इन दोनों का
संयुक्त
रूप से अभ्यास
आवश्यक है। यही
कारण
है कि बुद्ध
ने बोधिचित्त परिग्रह
के पश्चात्
छ: पारमिताओं की
शिक्षा
दी - दान, शील, क्षान्ति,
वीर्य, ध्यान एवं
प्रज्ञा।
प्रज्ञा
के बिना
शेष पारमिताएँ
अन्धी हैं। प्रज्ञा
पारमिता से रहित
ये पाँचों पारमिताएँ
पारमिता नहीं कहलाती।
जैसे क्षुद्र नदियाँ
गङ्गा नामक महानदी
का अनुगमन
कर
उसके साथ
महासमुद्र में
प्रवेश करती है
उसी प्रकार पाँचों
पारमिताएँ प्रज्ञा
पारमिता से परिगृहीत
होकर
उसका अनुगमन
कर
सर्वाकारज्ञता
को प्राप्त
होती है। महात्मा
बुद्ध ने निर्वाण
के जिन
आठ अङ्गों का उपदेश
दिया उनको तीन स्तम्भों
में विभाजित किया
गया- प्रज्ञा, शील
व समाधि। इनमें
प्रज्ञा के अन्तर्गत
सम्यक् दृष्टि
व सम्यक् सङ्कल्प
समाहित किए गए - शून्यता
का ज्ञान
ही प्रज्ञा हैं
- प्रज्ञाकरमति
ने बोधिचर्यावतार
में अपनी टीका
करते
हुए प्रज्ञा को
इस
प्रकार
बताया है - 'यथावस्थित
प्रतीत्यसमुत्पन्नतत्त्वप्रविचयलक्षणा’
अर्थात् अपने प्रतीत्य
से समुत्पन्न यथारूप
वस्तु को खण्ड-खण्ड
करके
जानने
वाली दृष्टि 'प्रज्ञा’
है, सम्यक् दृष्टि
के अनुरूप
किए
गए निश्चय भी प्रज्ञारूप
है तदनुरूप किए
गए सम्यक् सङ्कल्प
भी प्रज्ञारूप
है। शून्यता का
ज्ञान
या निरात्मता प्रज्ञा
का महान्
उत्कर्ष
(प्रज्ञा-पारमिता)
है।
सम्पूर्ण
बौद्ध सिद्धान्तवादी
निरात्मता को
स्वीकार
करते
हैं। किन्तु
इस निरात्मता के
अर्थ
का चिन्तन
करते
समय भिन्न-भिन्न
अर्थ लेते हैं।
कोई
स्थूल अर्थ लेता
है कोई
सूक्ष्म। फलस्वरूप
दो पक्ष उभरकर
सामने आते हैं
पुद्गल नैरात्म्य
एवं व धर्म नैरात्म्य।
माध्यमिक तथा योगाचार
सूक्ष्म स्थिति
तक
जाकर
धर्म नैरात्म्य
तथा वैभाषिक
एवं
सौत्रान्तिक
पुद्गल
नैरात्म्य को
स्वीकार
करते
हैं।
बौद्ध
दर्शन में सकल
दु:खों का मूल अविद्या
मानी गई है - अविद्या
का तात्पर्य
है- सत्य परिग्रह
- एकान्त
दृष्टि का ग्रहण।
बौद्ध दर्शन में
अविद्या को आधार
बनाकर
दो धाराएँ प्रवाहित
हुई पहली धारा
में आचार्य असङ्ग
आदि का मत
है जो वस्तुस्थिति
की अज्ञानता
को ही
अविद्या मानता
है। दूसरी धारा
आचार्य नागार्जुन
की है
उनके अनुसार
अविद्या वह है,
जो स्वभावत: असत्य
होने पर भी धर्मों
को स्वभावत:
सत्य मानती है
यह विपरीत धारणा
है मिथ्यादृष्टि
है। भगवान् बुद्ध
ने 62 मिथ्यादृष्टि
स्थान बताए, जिनके
कारण
सभी दृष्टिजाल
में फँसे हैं तथा
इसी में ऊपर नीचे
डूब-उतरा रहे हैं
–
सब्बे
ते इमेहेव द्वासट्ठिया
वत्थूहि अन्तोजालीकता
एत्थ सिता व उम्मुज्जमाना
उम्मुज्जन्ति,
एत्थ परियापन्ना
अन्तो जालीकता
व उम्मुजमाना उम्मुज्जन्ति। 146
प्रज्ञा
के उद्भूत
होने पर इसका नाश सम्भव
है। सर्वज्ञता
प्राप्ति के लिए ही
नहीं निर्वाण प्राप्ति
के लिए
भी प्रज्ञा आवश्यक
है
- अविद्या क्लेशावरण
है तथा इसके द्वारा
सञ्चित वासना ज्ञेयावरण
है। इस ज्ञेयावरण
वासना के निराकरण
के लिए
अविद्या का निराकरण
आवश्यक है अत:
सर्वज्ञता प्राप्ति
में विघ्न डालने
वाले, ज्ञेयावरण
एवं मोक्षप्राप्ति
में विघ्र डालने
वाले क्लेशावरण
दोनों के नाश के
लिए
दोनों का प्रतिकार
करने
वाला शून्यता दर्शन
है।
तथागत ने जितने
भी उपाय एवं जितनी
भी देशनाएँ बताईहैं
वे सभी प्रज्ञा
की प्राप्ति
के साधन
है –
इमं
परिकरं
सर्वं प्रज्ञार्थं
हि मुनिर्जगौ।
तस्मादुत्पादयेत्
प्रज्ञां दु:खनिवृत्तिकांक्षया।। बोधिचर्यावतार
9/1
अत: अविद्या
के नाश
एवं निर्वाण प्राप्ति
के लिए
उपाय पक्ष एवं
प्रज्ञा पक्ष दोनों
आवश्यक है। प्रज्ञा
का एक
अन्य
अर्थ है - 'वस्तुस्थिति
का ज्ञान’
ऐसी प्रज्ञा सत्यद्वय-
संवृति सत्य एवं
परमार्थ सत्य रूप
से दो प्रकार की
है
–
संवृति
परमार्थश्च
सत्यद्वयमिदं
मतम्।
बुद्धिरगोचरस्तत्त्वं
बुद्धि: संवृतिरुच्यते।। बोधिचर्यावतार
9/2
जगत्विषयक
प्रपञ्चबुद्धि
संवृति सत्य है
तथा निष्प्रपञ्च
एवं बुद्धि से
अगोचर परमार्थ
सत्य है। दोनों
से जगत् की वास्तविकता
का यथार्थ
बोध होता है।
शून्यता
का स्वरूप :- प्रज्ञा
का विषय
यह शून्यता क्या
है इसका अर्थ
किसी
स्थान पर अमुक
वस्तु
नहीं है, इससे शून्य
है ऐसा अर्थ नहीं
है, शून्यता को
जानने
के लिए
हमें दैनिक व्यवहार
में आने वाली एवं
सुनी हुई प्रत्येक
वस्तु
की वास्तविकता
का ज्ञान
होना चाहिए।
बौद्ध
दर्शन में तृष्णा
को समस्त
समस्याओं का मूल माना
गया है। किसी वस्तु
को महत्त्व
देने से तृष्णा
उत्पन्न होती है
किन्तु
यदि हमें वस्तु
की क्षणिकता
का बोध
हो तो उस वस्तु
में हमारी तृष्णा
नहीं रहेगी। अत:
'सर्वं क्षणिकम्
क्षणिकम्’ इसी
क्षणिकता का
विचार
करके
कहा
गया है।
जो वस्तु
हमारी प्रयोजन
सिद्धि में सहायक
होती
है उसके प्रति
भी हमारी तृष्णा
उत्पन्न हो जाती
है। फलस्वरूप उसी
के सदृश
स्वरूप वाली अन्य
वस्तु भी हमारी
तृष्णा का विषय
बन जाती है। किन्तु
यदि यह निश्चय
हो जाए कि प्रत्येक
वस्तु
एक-दूसरे
से भिन्न है तो
सजातीय (समान स्वरूप
वाली) अन्य वस्तु
के प्रति
आसक्ति उत्पन्न
नहीं होगी। इसी
हेतु 'सर्व स्वलक्षणम्
स्वलक्षणम्’ कहा
गया। प्रत्येक
वस्तु
सारहीन है इसी
हेतु 'सर्वं शून्यं
शून्यम्’ का प्रतिपादन
किया
गया।
प्रत्येक
वस्तु
अनेक
प्रत्ययों
पर निर्भर है, वह
अन्य कारणों
से बनती बिगड़ती
है, वह परतन्त्र
हैं, स्वतन्त्र
रूप से वस्तु सिद्ध
नहीं होती। यह
स्वतन्त्र रूप
से सिद्ध न होना
अथवा परतन्त्र
स्वभावता ही शून्यता
का अर्थ
है। यह प्रतीत्यसमुत्पाद
का नियम
वस्तु से सर्वज्ञता
के सारे
धर्मों पर लागू
होता है। अत: उनकी
स्वाभाविक
एवं
स्वतन्त्र सत्ता
से शून्यता के
विचार
का निरन्तर
अभ्यास किया जा
सकता
है। इस प्रकार की
भावना
से शून्यता के
प्रति
सत्यधारणा भी क्रमश:
त्यागी जा सकती
है जैसे शून्यता-शून्यता,
परमार्थ-शून्यता
–
शून्यतावासनाधानाद्धीयतेभाववासना।
किञ्चिन्नास्तीति
चाभ्यासात् सापि
पश्चात् प्रहीयते।।
यदा न भावो नाभावो
मते: सन्तिष्ठते
पुर:।
तदान्यगत्यभावेन
निरालम्बा जशाम्यति।।
बोधिचर्यावतार
9/33,34
अर्थात् निरन्तर
शून्यता के अभ्यास
से शून्यता के
ज्ञान
द्वारा भाव या
अभाव कोई
सत्य नहीं रहता
तो विषय-विषयी
द्वैत के नष्ट
हो जाने पर किसी
भी विषय के बुद्धि
के सामने
प्रकट
न होने पर सब कुछ
परम शान्त हो जाता
है। अत: शून्यता
की भावना
साधक
को निश्चित
रूप से करनी चाहिए
–
क्लेशज्ञेयावृतितम:
प्रतिपक्षो हि शून्यता।
शीघ्रं सर्वज्ञताकामो
च भावयति तां कथम्।।
बोधिचर्यावतार
9/55
अर्थात् सर्वज्ञता
कामी
को शून्यता
की भावना
शीघ्रातिशीघ्र
करनी
चाहिए, क्योंकि
शून्यता
क्लेश एवं ज्ञेयावरण
रूपी अन्धकार के
निवारण
की कारणभूता
है।
शून्यता की
भावना
करने
में भयभीत न होना
ही उचित है, क्योंकि
शून्यता
तो दु:खशमन
करने
वाली है, जबकि
वस्तुएँ
दु:ख उत्पन्न करने
वाली है अत: वस्तुओं
से ही त्रास उचित
है शून्यता से
नहीं –
यद् दु:खजननं वस्तु
त्रासस्तस्मात्
प्रजायताम्।
शून्यता दु:खशमनी
तत: किं जायते भयम्।।
बोधिचर्यावतार
9/56
वस्तु
सत्य की धारणा
सभी दु:खों का
कारण
है। सत्यद्वय
(संवृति सत्य एवं
परमार्थ सत्य)
रूप प्रज्ञा का
आश्रय
लेकर
'वस्तु की वास्तविक
स्थिति
का ज्ञान’
किया
जा सकता
है।
इन
दो सत्यों की स्थापना
करने
वाले दो भिन्न
मत हैं-एक ध्यान
के द्वारा
समाधि के बल से
शून्यता का ज्ञान
करने
वाले एवं दूसरे
श्रुत आदि ज्ञान
द्वारा पुद्गल
शून्यता का अर्थ
जानने वाले साधारण
जन अर्थात् वस्तुवादी
है।
वैभाषिक
आदि
चतुर्विध बौद्ध
सम्प्रदाय वस्तुत:
निरात्मता को
स्वीकार
करते
हैँ वैभाषिक
एवं
सौत्रान्तिक
केवल
'पुद्गलनैरात्म्य’
को एवं
योगाचार व माध्यमिक
'धर्म
नैरात्म्य’ को
भी
स्वीकार
करते
हैं। धर्म-नैरात्म्य
अत्यन्त सूक्ष्म
एवं दुर्बोध है।
धर्म-नैरात्म्य
ज्ञेयावरण का
प्रतिपक्ष
है और उससे सर्वावरणों
का प्रहाण
करके
सर्वज्ञता
की सिद्धि
होती है। पुद्गलनैरात्म्य
से क्लेशावरण का
प्रहाण
करके
अर्हत्व
की प्राप्ति
होती है।
पुद्गलनैरात्म्य
भावना - अर्हत्व-प्राप्ति
के लिए
अहङ्कार का निराकरण
आवश्यक माना
गया है। इस संसार
में प्राणी चतुर्विध
अहं से ग्रस्त
है, जिसके निराकरण
से निरात्मता की
प्राप्ति
होती है। प्रज्ञोपाय
द्वारा इनका निराकरण
निम्र प्रकार से सम्भव
है-
(1) लोक
(शरीर) के अहं
का निराकरण
: पुद्गल
नैरात्म्य की
सिद्धि
के लिए
सर्वप्रथम यह परीक्षा
करनी
आवश्यक है कि
शरीर
अहङ्कार का विषय
नहीं है। मैं न
तो दाँत, केश या नख
हूँ, न अस्थि, माँस,
मज्जा, रक्त आदि
हूँ, न लसिका या पित्त
हूँ, न वसा हूँ, न
स्वेद हूँ, न मैं
आँत, फेफड़े या
मलमूत्र हूँ, न
ऊष्मा हूँ न वायु
हूँ, न छिद्र हूँ,
न षट् विज्ञान
हूँ।
बोधिचर्यावतार
- 9/58-60
इस
प्रकार
अङ्ग-प्रत्यङ्ग
का विचार
करने
पर भी अहं, मैं या
आत्मा की प्राप्ति
नहीं होती, क्योंकि
शरीर
या चित्त अहं रूप
से सिद्ध नहीं
होता, उसमें अहं
की कल्पित
धारणा आसक्ति उत्पन्न
करती
है तथा सुख की
कामना
उत्पन्न करती है।
अत: यह स्वभाव से
नहीं है, शून्य
है, निरात्मक
है।
इस प्रकार के
कल्पित
आत्म-परिग्रह के
निषेध
की भावना
करनी
चाहिए।
(2) ज्ञान के अहं का
निराकरण
: सांख्य
दर्शन में ज्ञान
को अहं
या आत्मा के रूप में
स्वीकार
किया
गया है, जो उचित
नहीं, क्योंकि
यदि
ज्ञान अहं या आत्मा
होता तो शब्दादि
का श्रवणज्ञान
नित्य विद्यमान
रहता, चाहे शब्द
रहे या न रहे। किन्तु
शब्द आदि विषय
परिवर्तनशील हैं
तो नित्यज्ञान
का विषय
कैसे
बन सकते
हैं? अर्थात् नहीं
बन सकते
हैं। ज्ञान की
सिद्धि
ज्ञेय के द्वारा
होती है। ज्ञेय
के बिना
ज्ञान नहीं हो
सकता।
ज्ञेय के बिना
ज्ञान की सिद्धि
मानने पर काष्ठ को
भी
ज्ञान का लक्षण
प्राप्त होगा अर्थात्
उसे भी ज्ञान होना
चाहिए। ऐसा मानना
भी उचित नहीं कि
शब्द
न रहने पर भी रूपादि
का ज्ञान
रहने से ज्ञान
न होने का दोष नहीं
होता, क्योंकि
नित्य
धर्म पर पास या
दूर का प्रभाव
नहीं पड़ता। अत:
ज्ञान को भी अहं
या आत्मा मानना
उचित नहीं। यदि
हम ज्ञान के अनेक
रूप
मानें तो भी वह
स्वभाव से अनित्य
सिद्ध है और यदि
स्वभाव-भेद मानें
तो अपूर्व ऐक्य
स्थापित होता है।
यदि ज्ञान के कारण
एकरूपता
मानें तो सब चेतन-अचेतन
धर्म एक ही मानने
पड़ेंगे। अत: ज्ञान
अहं का विषय
नहीं।
बोधिचर्यावतार
- 9/61-67
(3) आत्मा के अहं का
निराकरण
- नैयायिकों के
मत
में आत्मा नित्य
व अचेतन है फिर
भी चेतना के योग से
विषयों का ज्ञाता
बनता है। यदि आत्मा
को अविकारी
व नित्य मानें
तो उसमें किसी चेतन
के द्वारा
परिवर्तन सम्भव
नहीं है ऐसी स्थिति
में आत्मा आकाशवत्
निष्क्रिय
एवं ज्ञानहीन सिद्ध
होती है। अत: आकाशवत्
नहीं होने से आत्मा
अनित्य एवं नश्वर
सिद्ध हुआ। इस
प्रकार
आत्मा भी अहं का
विषय
नहीं है।
बोधिचर्यावतार
- 9/69-73
(4) चित्त के अहङ्कार
का खण्डन
- विज्ञानवादी
आचार्य चित्त को
अहंकार
का विषय
मानते हैं। किन्तु
चित्त तो प्रतिक्षण
परिवर्तनशील है,
अतीत चित्त बीत
चुका,
अनागत चित्त अब
आएगा व वर्तमान
चित्त अगले ही
क्षण निरुद्ध हो
जाएगा। अत: प्रतिक्षण
परिवर्तनशील चित्त
अहं का विषय
नहीं हो सकता। इस
प्रकार
अहङ्कार की समूल
निवृत्ति के लिए पुद्गल
नैरात्म्य की
भावना
की जानी
चाहिए। बोधिचर्यावतार
- 9/74-78
धर्मनैरात्म्य
भावना : चतुर्विध
स्मृत्युपस्थानों
द्वारा धर्म नैरात्म्य
की भावना
इस प्रकार करते
हैं –
(1) कायस्मृत्युपस्थान
- इसमें शरीर के
वास्तविक
स्वभाव
का परीक्षण
होता है। हम जिसे
काय
कहते
हैं। उसकी वस्तुत:
सत्ता कहाँ है?
भिन्न-भिन्न अवयव
काय
नहीं हैं यदि हम
इन अवयवों में
रहने वाले किसी अवयवी
का विचार
काय
के रूप
में करें
तो प्रत्येक
अवयव
में काय
की स्थिति
माननी पड़ेगी।
किन्तु
काय
न बाहरी अवयवों
में प्राप्त है
एवं न ही अन्दर
काय
जैसी कोई
चीज है। अत: किसी
भी बुद्धिमान्
मनुष्य को स्वप्र
के समान
इस काय
पर आसक्ति उत्पन्न
नहीं करनी
चाहिए। जब काय नहीं
है तो स्वभाव से
स्त्री या पुरुष
आसक्ति के विषय
कैसे
होंगे।
(2)
वेदनास्मृत्युपस्थान
- जिस प्रकार काय
जैसी कोई
वस्तु नहीं है
उसी प्रकार दु:ख
या सुख की भी परमार्थ
सत्ता नहीं है,
क्योंकि वेदना
और उसका विषय
दु:ख परमार्थ-सत्
होता तो वह नित्य
रहता और सुख की
प्राप्ति
कभी
सम्भव नहीं होती।
प्रबल सुख से दु:ख
या प्रबल दु:ख से
सुख के दबने
की बात
भी अनुचित है, क्योंकि
प्रबल
सुख से स्थूल दु:ख
ही हटाया जा सकता
है, सूक्ष्म दु:ख
नहीं। सुख के प्रत्यय
से न तो दु:ख उत्पन्न
होता है एवं प्रबल
सुख के प्रत्यय
से दु:ख समाप्त
नहीं होता। इस
प्रकार
वेदना प्रत्ययों
पर निर्भर है अत:
परतन्त्र है, स्वभाव
से सिद्ध नहीं
है। इसी प्रकार
इन्द्रियों का
अर्थ
के साथ
संयोग सम्भव नहीं
है। विज्ञान से
भी किसी
पदार्थ का संसर्ग
नहीं हो सकता। इस
प्रकार
जब विज्ञान, इन्द्रिय
व अर्थ का संसर्ग
नहीं हो सकता तो
स्वभाव से वेदना
होने का भी
कोई
कारण
नहीं है। यदि दु:ख
की वेदना
स्वभाव से होती
तो इसका निराकरण
सम्भव नहीं होता।
स्वभावत: वेदयिता
एवं वेदना न होने
की अवस्था
जान लेने पर न तो
सुख प्राप्ति की
तृष्णा
होगी न दु:ख निवृत्ति
की।
परमार्थ में जब
वेदयिता एवं वेदना
नहीं होते तो इन
निरात्मक स्कन्धों
को सुख
व दु:ख की वेदना
से कुछ
लाभ-हानि नहीं
है। अत: वेदनास्मृत्युपस्थान
की भावना
करनी
चाहिए।
बोधिचर्यावतार
- 90-103
(3) चित्तस्मृत्युपस्थान
- परीक्षा करने पर
चित्त न इन्द्रियों
में उपलब्ध होता
है, न शरीर में है,
न शरीर से बाहर
कहीं
प्राप्त होता है,
न मिला हुआ है एवं
न ही स्वतन्त्र
रूप से प्राप्त
होता है, न रूपादि
विषयों में प्राप्त
होता है न ही इन्द्रियों
एवं विषयों के
मध्य
उसकी प्राप्ति
होती है। अत: उसकी
शून्यता
की भावना
करनी
चाहिए।
(4) धर्मस्मृत्युपस्थान
- इन्द्रियज्ञान
ज्ञेय विषय के
पूर्व
उत्पन्न नहीं हो
सकता
क्योंकि ज्ञान
ज्ञेय के आधार
पर ही उत्पन्न
होता है। इसी प्रकार
इन्द्रिय-ज्ञान
एवं ज्ञेय युगपत्
उत्पन्न नहीं हो
सकते।
क्योंकि ज्ञेय
के बिना
ज्ञान का आलम्बन
कौन
होगा? इन्द्रियज्ञान
के ज्ञेय
से पूर्व या ज्ञेय
के साथ
उत्पन्न होने पर
ज्ञेय की निष्प्रयोजनता
सिद्ध होती है।
ज्ञान को ज्ञेय
से पूर्व या युगपत्
मानने पर कार्य-कारण
भाव भी नहीं बन
सकता।
ज्ञेय के पश्चात्
ज्ञान उत्पन्न
नहीं हो सकता, क्योंकि
उस
समय ज्ञेय निरुद्ध
हो चुका होगा।
अत: आन्तरिक और बाह्य
सभी धर्मों की
स्वभाव
से उत्पत्ति नहीं
हो सकती।
स्वभावत: सत्य
न होने का अर्थात्
शून्यता का ज्ञान
न होने पर कुछ समय
तक
शान्त
होने पर भी वासना
रहने के कारण
प्रत्यय से सम्पर्क
होने
से फिर से क्लेश
उत्पन्न होते हैं,
क्योंकि उसकी
जड़
सत्य-धारणा उनमें
रहती है। अत: क्लेशों
के समूल
निराकरण
के लिए
शून्यता की भावना
करनी
चाहिए –
विना शून्यतया
चित्तं बद्धमुत्पद्यते
पुन:।
यथासंज्ञिसमापत्तौ
भावयेत्तेन शून्यताम्।।
बोधिचर्यावतार
9/49
धम्मपद में
इसी हेतु भगवान्
कहते
हैं –
कुम्भूपमं
कायमिमं
विदित्वा नगरूपमं
चित्तमिदं ठपेत्वा।
योधेथ मारं पञ्ञायुधेन
जितं च रक्खे अनिवेसनो
सिया।।
धम्मपद
चित्तवग्गो 40
qqq
सन्दर्भ
ग्रंथसूची
१. धम्मपद
२. बोधिचर्यावतार
३. दीर्घनिकाय
४. ब्रह्मजालसुत्त