ISSN 0976-8645
योग एवं कुण्डलिनी
जागरण: एक अध्ययन
निर्भयशंकर
भारद्वाज
शोधार्थी,
दर्शन शास्त्र
मिथिला संस्कृत
स्नातकोत्तर अध्ययन
एवं शोध संस्थान,
दरभंगा।
09431293366
विश्व
के जितने भी दर्शन
है, वे मानव के शाश्वत
संघर्ष की कथाएँ
हैं, उन्मुक्त
चिन्तन के पड़ाव
हैं तथा ऋृषियों,
मुनियों एवं तत्ववेत्ताओं
के मानस मन्थन
हैं। इस अनन्त
प्रयास, अविराम
पुरुषार्थ तथा
अहर्निश चिन्तन
का एकमात्र उद्देश्य
आनन्द की प्राप्ति
तथा दुःख की निवृत्ति
ही रहा है।
दुःख
का उत्स क्या है?
आनन्द का स्रोत
क्या है? इन प्रश्नों
का उत्तर सबने
अपने-अपने ढ़ंग
से दिया है, परन्तु
सभी का मानना है
कि दुःख का कारण
है व्यक्त प्रकृति
जो नश्वर, परिवर्तनशील
और देशकाल सापेक्ष
है जिसमें आनन्द
और सुख नहीं।
आनन्द
का मूल उस अगम, अगोचर
और अव्यक्त स्रोत
को माना गया है
जिसे नाम एवं रूप
में समझा नहीं
जा सकता। भारत
की भूमि उन्मुक्त
चिन्तन के क्षेत्र
में अत्यधिक उर्वरा
रही है। जहाँ प्रतिभा
पर कभी प्रतिबन्ध
नहीं रहा। परस्पर
विरोधी विचारधाराएँ
और दर्शन साथ-साथ
विकसित, पुष्पित
और पल्लवित होते
रहें हैं। भारतीय
अध्यात्म परम्परा
एवं संस्कृत वाङ्मय
के आस्तिक दर्शनों
में योग का स्थान
अप्रतिम रूप से
स्वीकार किया गया
है।
मनुष्य
शरीर का परम प्रयोजन
सकल दुःख निवृत्ति
एवं परमानन्द की
प्राप्ति है। योग
के सम्बन्ध में
महर्षि पतन्जलि,
वशिष्ठ, वेदव्यास
आदि ने अपने - अपने
ग्रन्थों में विशुद्ध
रूप से वर्णन किया
है। योग भारत की
प्राचीनतम विधा
है। योग का मानना
है कि कुण्डलिनी
के जागरण से जीवन
में एक अद्भुत
आनन्द आता है और
चेतना का रूपान्तरण
हो जाता है। कुण्डलिनी
के जागरण से एक
आन्तरिक जागृति
होती है।
योग में
कुण्डलिनी के स्वरूप
तथा षटचक्रों का
विशद वर्णन किया
गया है। योग दर्शन
भारतीय षट दर्शनों
में से एक है। तन्त्र
षड्दर्शनों
में नहीं आता।
दर्शन का आधार
है तर्क और बुद्धि
जो जगत को माया
और ईश्वर के वास्तविक
सत्य मानते हैं
लेकिन तन्त्रशक्ति
जीवन के अनुभवों
को सोपानाधार के
रूप में स्वीकार
करता है। तन्त्र
में भी कुण्डलिनी
तथा षटचक्रों का
वर्णन यत्र-तत्र
देखने को मिलता
है।
योग
पाणिनी ने योग
शब्द की व्युत्पत्ति
’युजिर् योगे’ एवं
’’युज् समाधौ’’ इन
दो धातुओं से दी
है। प्रथम व्युत्पत्ति
के अनुसार योग
शब्द का अनेक अर्थों
में प्रयोग किया
गया है, जैसे - जोड़ना,
मिलाना, मेल आदि।
इसी आधार पर जीवात्मा
और परमात्मा का
मिलन योग कहलाता
है। इसी संयोग
की अवस्था को ’’समाधि’’
की संज्ञा दी जाती
है जो कि जीवात्मा
और परमात्मा की
समतावस्थाजनित
होती है। यथा -
समाधिः
समतावस्था जीवत्मपरमात्मनोः
।
संयोग
योग इत्युक्तो
जीवात्मपरमात्मनोः।
(वशिष्ठ
संहिता - 1/44)
महर्षि
पतंजलि ने योग
शब्द को समाधि
के अर्थ में प्रयुक्त
किया है। व्यास
जी ने ’योगःसमाधिः‘
कहकर योग शब्द
का अर्थ समाधि
ही किया है। वाचस्पति
का भी यह मत है।
संस्कृत व्याकरण
के आधार पर ’योग’
शब्द की व्युत्पत्ति
निम्न प्रकार से
की जा सकती है-
1. ’युज्यते
एतद् इति योगः’
- इस व्युत्पत्ति
के अनुसार कर्मकारक
में योग शब्द का
अर्थ चित्त की
वह अवस्था है जब
चित्त की समस्त
वृत्तियों में
एकाग्रता आ जाती
है। यहाँ पर योग
शब्द का उद्देश्यार्थ
प्रयोग हुआ है।
2. ’युज्यते
अनेन इति योगः’
- इस व्युत्पत्ति
के अनुसार करण
कारक में योग शब्द
का अर्थ वह साधन
है जिससे समस्त
चित्तवृत्तियों
में एकाग्रता लाई
जाती है। यहाँ
’योग’ शब्द साधनार्थ
प्रयुक्त हुआ है।
इसी आधार पर योग
के विभिन्न साधनों
को जैसे हठ, मन्त्र,
भक्ति, ज्ञान, कर्म
आदि को हठयोग, मन्त्रयोग,
भक्तियोग, ज्ञानयोग,
कर्मयोग आदि के
नाम से पुकारा
जाता है।
3. ’युज्यते
तस्मिन् इति योगः’
इस व्युत्पत्ति
के
अनुसार योग शब्द
का अर्थ वह स्थान
है जहाँ चित्त
की वृत्तियों की
एकाग्रता उत्पन्न
की जाती है।
योग
की परिभाषायें:-
1. योग की सबसे
अधिक उद्धृत की
जाने वाली परिभाषा
महर्षि पतंजलि
की है। इनके अनुसार
- योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।
- योगसूत्र 1/2
चित्त
की समस्त वृत्तियों
के निरोध से उत्पन्न
अवस्था को योग
कहते हैं।
2. भगवान श्रीकृष्ण
’गीता’ में उपदेश
देते हुये कहते
हैं -
समत्वं
योग उच्यते। गीता - 2/48
अशान्त
व दुःखित मन जब
सुव्यवस्थित होकर
शान्त व निर्द्वन्द्वतापूर्वक
समस्थिति को प्राप्त
होता है, उसे ही
योग कहते हैं।
3. योगः कर्मसु
कौशलम्। गीता - 2/50
भगवान्
श्रीकृष्ण ने कर्मों
में कुशलता को
योग कहा है। कर्म
का सम्बन्ध कर्ता
के साथ होने से
कर्मफल का अवश्यमेव
कर्ता ही भोक्ता
होता है। कर्मफल
भोगने के लिए उसे
जन्मादि का ग्रहण
भी अवश्य ही करना
होगा। यदि ब्रह्म
को अर्पित करके
अनासक्त भाव से
कर्म किया जायेगा
तो कर्ता को उसका
फल प्राप्त नहीं
होगा। ऐसा अनासक्त
कर्म ही कुशलकर्म
है, जिसे योग कहा
है क्योंकि ऐसे
कर्म बन्धनकारक
नहीं होते।
4. योग वह अवस्था
है जिसमें मन, इन्द्रियों
और प्राणों की
एकता हो जाती है।
-
मैत्रायणी उपनिषद्
6/25
5. पंच इन्द्रियों,
मन एवं बुद्धि
की स्थिर अवस्था
को योग कहते हैं।
-
कठोपनिषद् (2ः3ः11)
6. संयोगो
योग इत्युक्तो
जीवात्मा परमात्मनोः।
-योगियाज्ञवल्क्य,
1-44
जीवात्मा
व परमात्मा के
संयोग की अवस्था
का नाम ही योग है।
योऽपानप्राणयोरैक्यं
स्वरजो रेतसोस्तया।
सूर्य्याचन्द्रमसोर्योगो
जीवात्मपरमात्मनोः।।
एवंतुद्वन्द्वजालस्य
संयोगो योग उच्यते।।
योगशिखोपनिषद्
’कुण्डलिनी-जागरण’
’तन्त्र’
और ’योग’ -दोनों की
ही साधना पद्धतियों
में ’कुण्डलिनी-जागरण’
तथा ’षट्-चक्र वेधन’
का अतिशय महत्व
है। मानव शरीर
में ’षट्-चक्र’ तथा ’कुण्डलिनी’
वास्तविक सन्ताएँ
नहीं है। आधुनिक
शरीर विज्ञान में
भी ’षट्-चक्र’ का
उल्लेख प्लेक्सस
के रूप में मिलता
है। यह अलग बात
है कि आधुनिक शरीर
- विज्ञानी इन चक्रों
की चामत्कारिक
शक्तियों से परिचित
नहीं है। वे ’चक्र’
हैं -
1.
मूलाधार 2. स्वाधिष्ठान, 3. मणिपुर 4. अनाहत 5. विशुद्ध
एवं 6. आज्ञा-चक्र।
’आज्ञा-चक्र
के ऊपर ’सहस्र दलवाला
सहस्रार’ है, जहाँ
भगवान शिव की अवस्थिति
है। ‘षट्-चक्र’ - मेरुदण्ड
के अन्तर्गत ‘सुषुम्णा
नाड़ी’ में अवस्थित
हैं। ‘आकाश’ आदि
तत्त्वों के सूक्ष्म
तथा नियामक प्रतिनिधि
इन चक्रों की अवस्थिति
शरीस्थ ‘मेरुदण्ड’
में तत्त्व- विकास-
क्रम से ही हैं।
इनकी स्थिति शरीर
में ‘अवरोही-क्रम’
से है। सबसे नीचे
‘मूलाधार’ चक्र
है। ‘मूलाधार-चक्र’
में व्यष्ठि ‘कुण्डलिनी’
शीत निद्रा मग्न
भुजङिग्नी की तरह
सोई है। ये ‘चक्र’
मानव शरीर में
कर्मेन्द्रियों
और ज्ञानेन्द्रियों
के नियामक हैं।
इन चक्रों में
कुल मिलाकर 50 दल
है। इनमें से प्रत्येक
दल पर एक-एक ‘अक्षर’
अर्थात ‘मातृका’
की स्थिति है।
सामान्य
अवस्था में अर्थात्
‘कुण्डलिनी-जागरण’
के पूर्व चक्रों
के कमल-दल नीचे
की ओर झुके रहते
है। इससे यह ध्वनित
होता हैं कि ‘कुण्डलिनी’
की प्रसुप्तावस्था
में जीवन की गति
अधो-गामिनी होती
है। उसकी आत्मोयति
के कपाट बंद रहते
हैं। ‘कुण्डलिनी’
जब जागृत होकर
ऊर्ध्वगामिनी
होती है, तब वह इन
चक्रों का भेदन
करती हुई ‘सहस्रार’-स्थित
शिव तक पहुँचती
है। ‘कुण्डलिनी’
के सम्पर्क में
आते ही ‘चक्रों’
के दल भी ऊर्ध्वमुखी
हो जाते हैं- खिले
हुए ‘कमल’- पुष्प
की तरह।
षट्-चक्रों
में से ‘स्वाधिष्ठान
चक्र’ विशेष महत्व
का है। ‘जल’ तत्व
प्रधान इस ‘चक्र’
का संबंध ‘उपस्थ’
और ‘रसना’ (लिंग और
जीभ) से है। कहना
नही होगा कि सामान्य
मनुष्य का जीवन
स्वादेच्छा और
भोगेच्छा की पूर्ति
में ही व्यतीत
हो जाता है। ‘काम’
की उत्पति ‘जल’ से
मानी गयी है। ‘काम’
की गति पाँचवें
चक्र तक है। इससे
यह निष्कर्ष निकालना
असंगत नहीं होगा
कि पाँचांें चक्रों
का भेदन करने के
पश्चात योगी अथवा
साधक कामजयी होता
है। यदि ‘काम’ ने
‘आज्ञा-चक्र’ में
प्रवेश करने का
दुस्साह किया,
तो ‘शिव’ के तृतीय
नेत्र की ज्वाला
उसे भस्म कर देती
है। यह तृतीय नेत्र
‘आज्ञा-चक्र’ में
स्थित है। ‘मदन-दहन’
का यही रहस्य है।
मेरुदण्ड
‘मानव-शरीर’
में भौतिक और आध्यात्मिक
- दोनों ही दृष्टियों
से ‘मेरुदण्ड’ का
अतिशय महत्व है।
‘मेरुदण्ड’ 33 अस्थि-पर्वो
से बना हुआ है।
ये अस्थि-पर्व
एक दूसरे से सटकर
उपर - नीचे बाँस
की पेटियों के
समान जमे हुए हैं।
इसके एक एक पर्व
में एक एक देवता
का निवास है। ‘मेरुदण्ड’
का विस्तार ‘मूलाधार-चक्र’
से मस्तिष्क के
अधो-भाग तक है।
‘मेरु’ की
परिकल्पना ‘पर्वत’
के रूप में की जाती
है। अब चूँकि शरीरस्थ
‘मेरुदण्ड’ की संरचना
अस्थि-पर्वों से
हुई है, अत एव इसे
‘पर्वत’ का प्रतीक
मानना तर्क संगत
है - ‘पर्वाणि सन्ति
अस्मिन् इति पर्वतः।’
‘मेरुदण्ड’
में ‘इड़ा-पिगंला
और सुषुम्णा’ नाड़ियाँ
हैं। ये तीनों
नाड़ियाँ ‘सूर्य-चन्द्र
और अग्नि’ संज्ञक
हैं। ‘मानव शरीर’
में ये ‘गंगा-यमुना
और सरस्वती’ की
प्रतीक हैं। जिस
स्थान पर ये तीनों
नाड़ियाँ मिलती
हैं - वह ‘प्रयाग’
है। इनके ऊपर के
सिरे पर ‘शिव का
निवास - कैलाश’ है
और निचले शिरे
पर ‘शक्ति पीठ’ है,
जहाँ ‘कुण्डलिनी-रूपा
शक्ति’ की अवस्थिति
है। जब तक यह ‘कुण्डलिनी’
जागृत नहीं होती,
तब तक मानव का आध्यात्मिक
विकास अवरुद्ध
रहता है। सतत अभ्यास
और साधना से जब
यह जागृत होकर
‘सुषुम्णा-मार्ग’
से ऊर्घ्व-मुखी
होकर उपर उठती
है, तब इसके सम्पर्क
से ‘मूलाधार’ आदि
चक्रों के ‘कमल-दल’
जागृत हो उठते
हैं।
‘षट्-चक्रों’
का भेदन करती हुई
जब उक्त शक्ति-रूपा
‘कुण्डलिनी-सहस्रार’
में पहुँचकर ‘शिव’
से संयोग करती
है, उसे ही पारमार्थिक
दृष्टि से शिव
और शिवा का परिणय
कहा जाता है। यही
स्वराट् का विराट
में विलय है। यही
योग की सर्वोच्च
समाधि है। शिव
और शिवा के सामंजस्य
से जो अमृत-स्राव
होता है, उसका पान
करके साधक को ‘अमरत्व’
की प्राप्ति होती
है। ‘तन्त्र-ग्रन्थों
में पीत्वा पीत्वा,
पुनःपीत्वा’ आदि
वाक्यों द्वारा
बार-बार इस ‘अमृत
पान’ का निर्देश
दिया गया है।
सन्दर्भ
ग्रन्थ सूची
1. चण्डीः
कल्याण मन्दिर
प्रकाशन, प्रयाग
2. कल्याणः
गीता प्रेस, गोरखपुर
3. योग विद्याः
शिवानन्द मठ, मुंगेर
4. The serpent power: John Woodroffe