ISSN 0976-8645

 

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नैषधं विद्वदौषधम्

 

 

 

सुश्री स्मिता सारस्वत

शोधच्छात्रा (संस्कृत विभाग)

जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय,

जोधपुर (राज0)


 

 

भारतीय संस्कृति में संस्कृत भाषा की जो महत्ता देखी जाती है, उतना ही महत्त्वपूर्ण स्थान संस्कृत साहित्य का भी है। संस्कृत साहित्य में न केवल काव्यशास्त्र समृद्ध है प्रत्युत काव्य परम्परा को दृढ. बनाने वाली कविमाला भी विस्तृत और विलक्षण रही है। वर्तमान समय में काव्य जगत में प्रमुख रूप से दस कवियों को समादृत किया गया है -

                                   आदौ कालिदासः स्यादश्वघोषस्ततः परं

                                                           भारविश्च तथा भट्टिः कुमारश्चापि पञ्चमः ।

                                   माघरत्नाकरौ पश्चात् हरिश्चन्द्रस्तथैव च

                                                           कविराजश्च श्रीहर्षः प्रख्यातः कवयो दश ।।

श्रीहर्षरचित नैषधीयचरित महाकाव्य वृहत्त्रयी ( किरातार्जुनीयम्, शिशुपालवधम्, नैषधीयचरितम् ) एवं पञ्च महाकाव्य ( रघुवंशम्, कुमारसम्भवम्, किरातार्जुनीयम्, शिशुपालवधम् एवं नैषधीयचरितम् ) की श्रेणी में परिगणित होता है। इन महाकाव्यों को संस्कृत साहित्य के पञ्च प्राण कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। नैषध के लिए उक्त नैषधं विद्वदौषधं सर्वथा समीचीन प्रतीत होता है क्योंकि कार्य के अनुकूल परिणाम के लिए यथा स्वास्थ्य का निरामय होना आवश्यक है, उसी प्रकार ज्ञान वृद्धि हेतु धी का परिमार्जन भी परमावश्यक है। नैषध विद्वज्जनों के लिए वह रामबाण औषधि है, जिसके अध्ययनोपरान्त पाठक के पास स्वस्थ (विद्वान्) होने के अतिरिक्त कोई विकल्प शेष नहीं रह जाता। नल कथा का निरूपण करने वाली अमृत वाक् का आस्वादन करके विद्वानों की बुद्धि और प्रखर हो जाती है। जैसा कि स्वयं महाकवि का कथन है -

                                   निपीय यस्य क्षितिरक्षिणः कथाः

                                               तथाद्रियन्ते न बुधाः सुधामपि ।

                                   नलः सितच्छत्रितकीर्तिमण्डलः

स राशिरासीन्महसां महोज्ज्वलः ।।

                                               (नैषध 1/1)

अर्थात् समस्त दिशाओं में व्याप्त यश वाले राजा नल की कथा का पान करके विबुध जन अर्थात् विद्वज्जन एवं देवता भी स्वस्पृहणीय अमृत का वैसा आदर नहीं करते। ऐसी अमृत से भी उत्कृष्ट नल कथा के प्रणेता, विविध विद्याओं के ज्ञाता, अप्रतिहत मेधा सम्पन्न, प्रकाण्ड पण्डित, कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूः की सदुक्ति को चरितार्थ करने वाले महाकवि श्रीहर्ष ने संस्कृत साहित्य के महाकाव्यों की मणिमाला में सुमेरु सदृश उस अत्यन्त विशाल ग्रन्थ रत्न को पिरोया, जिसकी आभा मरकत, वैदूर्य, माणिक्य इत्यादि रत्नों की आभा से कहीं उत्कृष्ट है। यथा हीरे की परख करने में जौहरी ही सक्षम होता है, तथैव नैषधीयचरित महाकाव्य भी रससिद्ध विद्वज्जनों की प्रज्ञा का विषय है, सामान्य मति का नहीं ।

तात्पर्य यह है कि नैषध महाकाव्य एक ऐसा सम्पूर्ण शास्त्र है जो वैदुष्य के धारा प्रवाह के कुन्द हो जाने पर उसे पुनः प्रखर बनाने में समर्थ है। परमशास्त्रज्ञ श्रीहर्ष ने अपने महाकाव्य को शृङ्गारामृतशीतगुः ही नहीं बनाया वरन् भारतीय संस्कृति एवं अनेक गम्भीर विषयों से अलङ्कृत किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह महाकाव्य मात्र कृति न रहकर ज्ञान की विविध सरणियों का वृहत्कोश बन गया है। यही कारण है कि नैषध को नैषधं विद्वदौषधं एवं माघ तथा भारवि की रचनाओं से उत्कृष्ट माना जाता है -

                       उपमा कालिदासस्य भारवेरर्थगौरवम्

                                               दण्डिनः पदलालित्यं माघे सन्तित्रयो गुणाः ।।

                       तावद् भारवेर्भाति यावन्माघस्य नोदयः

                                               उदिते नैषधे काव्ये क्व माघः क्व च भरविः ।।

नैषध में अर्थगौरव, पदलालित्य एवं उपमा की म×जुलता ही नहीं वरन् भारतीय संस्कृति के प्राण रूप पुरुषार्थ चतुष्टय धर्म, अर्थ, काम और मोक्षपरक जीवन मूल्यों की भी अभिव्यक्ति होती है। नैषधीयचरित महाकाव्य की विशिष्टता यह रही कि प्रत्येक सर्ग के अन्त में मणिरत्न श्रीहर्ष ने अपने माता-पिता का स्मरण और अपनी रचनाओं का सङ्केत किया, यह अद्भुतता अन्यत्र दुर्लभ है। श्रीहर्ष ने अपने पिता के लिये ‘कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरःऔर स्वयं के लिये ‘मातृचरणाम्भोजिमौलिविशेषणों का प्रयोग किया, जिससे उनकी अपने पिता के प्रति अतिशय आदर सम्मान एवं माता के प्रति अगाध श्रद्धा का द्योतन होता है। पाण्डित्य और वैदग्ध्यपूर्ण इस कृति के सन्दर्भ में स्वयं महाकवि द्वारा उक्त गर्वोक्ति मिथ्या नहीं कही जा सकती-

                                   यत्काव्यं मधुवर्षि धर्षितपरास्तर्केषु यस्योक्तयः ।

                                                                                               (नैषध 22/153)

           श्रीकण्ठचरित प्रणेता मन्न् का कथन है कि विद्वत्ता वही है, जो परोपकार में फलित हो, केवल जीविका चलाने का उपाय सीखने वाले व्यक्ति वाणी के कारीगर मात्र होते हैं -

                       स वैदुषी फलं यस्या न परोपकृते फलम् ।

                                               शिक्षन्ते जीवनोपायमन्ये वाङ्मयशिल्पिनः ।। (श्रीकण्ठचरित-25/115)

           महाकवि श्रीहर्ष की यह रचना न केवल परोपकार में प्रत्युत सुधी का परिमार्जन करने में सक्षम है अपितु यह महाकाव्य अज्ञान रूप तम का नाशक और अध्येता के ज्ञान में उत्तरोत्तर वृद्धि करने वाला है। नैषधीयचरित के प्रसिद्ध टीकाकार श्री विद्याधर द्वारा उक्त है कि -

 

 

 

अष्टौ व्याकरणानि तर्कनिवहः साहित्यसारो नयौ

                                               वेदार्थावगतिः पुराणपठितिर्यस्यान्यशास्त्राण्यपि ।

नित्यं स्युः स्फुरितार्थं दीपविहता ज्ञानान्धकाराण्यसौ

                                                 व्याख्यातुं प्रभवत्यमुं सुविषमं सर्गं सुधी कोविदः ।।

           प्रस्तुत उक्ति से विद्याविशारद, परम दार्शनिक, कविकुलशिरोमणि श्रीहर्ष की सर्वज्ञता ज्ञात होती है। जैसा कि महाकवि ने अपने ग्रन्थरत्न में उद्धृत किया है कि सज्जन व्यक्ति स्वप्रशंसा अपने कण्ठ से नहीं वरन् अपने कार्य के सुपरिणाम से करते हैं -

ब्रुवते हि फलेन साधवो न तु कण्ठेन निजोपयोगिताताम् ।

                                                                                                                       (नैषध-2/48)

श्रीहर्ष इसे चरितार्थ करते प्रतीत होते हैं। महाकवि ने नैषध में स्वरचित सूक्तियों के माध्यम से भी समाज को विभिन्न सन्देश दिये हैं, जिनसे कवि के सूक्ष्म पर्यवेक्षण और पाण्डित्य का दिग्दर्शन होता है। यथा -

         धनिनामितरः सतां पुनर्गुणवत्सन्निधिरेव सन्निधिः । (2/53)

         स्वतः सतां हि परतोऽपि गुर्वी । (6/22)

         मितं च सारं च हि वाग्मिता । (9/8)

         चकास्ति योग्येन हि योग्यसङ्गमः । (9/56)

         जनानने कः करमर्पयिष्यति । (9/125)

         सुज्ञं प्रतीङ्गितभावनमेव वाचः । (11/101)

         विद्यामिव विनीतायन विषेदुः प्रदायते । (17/2)

         सर्वान् बलाकृतानर्थानकृतान्मनुरब्रवीत् । (17/48)

         आहृता हि विषयैकतानता ज्ञानधौतमनसं न लिम्पति । (18/2)

         एकाम्बुबिन्दुव्ययमम्बुराशेः पूर्णस्य कः शंसति शोषदोषम् । (18/64)

           महाकाव्य के नायक (नल) और नायिका (दमयन्ती) की जीवनशैली चूंकि कृष्ण अथवा राम सदृश आदर्श तो प्रस्तुत नहीं करती तथापि इनके जीवन से सम्बद्ध किञ्चित् वृत्तान्त तत्कालीन और वर्तमानकालिक समाज की व्यवस्थाओं एवं रीति रिवाजों को अवश्य प्रभावित करते हैं। नल की अपेक्षा दमयन्ती का चरित्र अधिक प्रभावी सिद्ध होता है क्योंकि उसने अपने आचरण से सतीत्व का जो आदर्श रखा वह वर्तमानकालीन नारियों के लिये अनुकरणीय और कल्याणकारी है। जैसा कि महाकवि श्रीहर्ष नैषध में उद्धृत करते हैं-

पवित्रमत्रातनुते जगद्युगे स्मृता

                       रसाक्षालनयेव यत्कथा ।

कथं न सा मद्गिरमाविलामपि

                           स्वसेविनीमेव पवित्रयिष्यति ।।

                                                                       (नैषध 1/3)

नैषधीयचरित महाकाव्य शृङ्गार रसपरक वह कलश है जिसमें दर्शनशास्त्र, व्याकरणशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, अश्वशास्त्र, सामुद्रिकशास्त्र, पाकशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, शकुनशास्त्र इत्यादि अनेक औषधियों का समावेश मिलता है। यह कृति काव्यजगत् के आकाश में सञ्चरण करने वाली आकाश गङ्गा के समान है। अनेक शास्त्रों की परिगणना से यह कहना सम्यक् प्रतीत होता है कि यह महाकाव्य न केवल भारतीय संस्कृति का परिचायक है, प्रत्युत मानव के आचरण में मानवता, सदाचार और बन्धुत्व का वपन करने में भी समर्थ है। इसकी नवीनता के विषय में कवि स्वयं कहते हैं कि-

तस्यागादयमेकविंश गणनः काव्येऽतिनव्ये कृतौ ।

भैमीभर्तृचकरत्रवर्णनमये निसर्गनिसर्गोज्ज्वलः।।

           महाकवि श्रीहर्ष की विद्वत्ता के दर्शन नैषध में यत्र तत्र देखने को मिलते हैं किन्तु महाकाव्य में किया गया पञ्चनली वर्णन अपना विशिष्ट स्थान रखता है। दमयन्ती की अभिलाषा से इन्द्र, अग्नि, यम, वरुण चारों देव भी नल का रूप धारण कर स्वयंवर में पहुँचे। स्वयंवरार्थी राजाओं का परिचय देने के बाद देवी सरस्वती ने दमयन्ती के सन्देह निवारणार्थ छद्म वेषधारी देवों एवं वास्तविक नल का श्लेषोक्ति और काकु वक्रोक्ति से अद्भुत वर्णन प्रस्तुत किया है-

देवः पतिर्विदुषि! नैष धराजगत्या

                                   निर्णीयते न किमु न व्रियते भवत्या ।

नायं नलः खलु तवातिमहानलाभो

                                   यद्येनमुज्झसि वरः कतरः परस्ते ।।

                                                                                   (नैषध 13/34)

           श्लोक में प्रयुक्त पदों के भिन्न-भिन्न पदच्छेद करने पर पाँचों नलों का वर्णन सम्भव है। यथा- धराजगत्या पद का इन्द्र पक्ष में धरा अज ऐसा पदच्छेद होने पर इन्द्र का देवत्व व्यक्त होता है अथवा धरान् पर्वतान् अजति क्षिपति धराजः इन्द्रः। प्रकाशाख्याकार के विभिन्न अर्थों के अनुसार यह देव भू-लोक के स्वामी नहीं है। ये देव हैं और पर्वत क्षेपण में समर्थ है। क्या तुम ये निश्चय नहीं करती हो? और इन्हें वरण नहीं करती हो अपितु तुम्हें इन्हें इन्द्र जानकर वरण करना चाहिए अथवा पूर्व दिशा के स्वामी यह इन्द्र निश्चय ही नल नहीं है किन्तु अतितेजस्वी नलाभा से युक्त है अथवा यह नल नहीं देवेन्द्र हैं। अत एव इसके वरण से तुम्हें बडे-बडे. उत्सव, स्वर्ग में नन्दन वन में विहार और सुमेरु पर्वत का क्रीड.दि का लाभ होगा ।

           अथवा यदि इस अ-इनम् अर्थात् विष्णु के ज्येष्ठ भ्राता होने से इन्द्र को छोडोगी तो अन्य कौनसा श्रेष्ठ वर मिलेगा? अपितु अन्य कोई श्रेष्ठ वर नहीं मिलेगा अथवा छोड.ोगी तो तुम्हें कतर अर्थात् क- वायु से बढ.ने वाला अथवा जल से शान्त होने वाला अग्नि ही प्राप्त होगा अथवा सरस्वती इन्द्र का त्याग करने का सङ्केत कर कहती हैं कि ‘यह भू-लोक का राजा नल नहीं है, क्या तुम यह निर्णय नहीं करती हो? अपितु अवश्य ही करती हो अर्थात् यह इन्द्राणी पति इन्द्र ही है, यह जानकर जो तुम इसका वरण नहीं करती हो उचित ही है। तुमने नलाभ अर्थात् तृणवत् निस्सार का त्याग कर उचित किया क्योंकि नल वरण के अभाव में तो यह अलाभ ही होगा ।

           ‘धरो वाहनम् अजः छागः इति धराजः, स एव गतिशरणं इस प्रकार पुनः देवी का अग्नि के विषय में कथन है कि ‘हे दमयन्ती! अज वाहन वाला अग्नि ही जिसकी गति है, ऐसी वह अग्नि कोण रूप दिशा का स्वामी अनल है। क्या यह निर्णय नहीं करती हो? और यदि निर्णय कर लिया है तो वरण क्यों नहीं करती हो? अपितु तुम्हें इसका वरण करना चाहिए यह निश्चयतः नल नहीं है नलाभ है अर्थात् नल के समान आभा वाला है अथवा ना-एषः न यह मनुष्य नहीं अपितु कृत्रिम स्वरूप में अग्नि है। जो मात्र तृण में तेजस्विता वाला है शत्रु में नहीं अर्थात् नैषधराज नल ही गति है जिसकी ऐसी तुम प्रकाशमान अग्नि का निर्णय अवश्य ही करती हो, जो कि उचित ही है। अतः यह तुम्हारे द्वारा वरणीय नहीं है।

           यम के पक्ष में अजति शृङ्गाभ्यां खुरैर्वा तेन या गतिर्गमनं तयोपलक्षितः अर्थात् पर्वतों को फेंकने वाले महिष की गति से युक्त धर्म नियन्त्रक होने से संसार के रक्षक इस यम का तुम निश्चय नहीं करती हो? अपितु अवश्य करती हो, फिर वरण क्यों नहीं करती? यह दक्षिण दिशा का स्वामी है, यदि तुम इसे छोड.ती हो तो अन्य कोई श्रेष्ठ वर नहीं मिलेगा अथवा यह नल नहीं है किन्तु तुम्हारे प्राणों का लाभ है। अतः अत्यधिक पूजनीय है। यदि इसे छोड़ोगी तो इससे बड़ा शत्रु कौन होगा? अपितु इसके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं होगा अथवा इसके त्यागोपरान्त क अर्थात् वरुण तुम्हारा वर होगा। यहीं पर देवी दमयन्ती से यम का त्याग करने का सङ्केत भी करती हैं कि धर्मराज जानकर तुम इसमें देव का निश्चय नहीं करती हो ऐसा नहीं है। अपितु अवश्य ही निश्चय करती हो। इसीलिये वरण नहीं करती हो, यही उचित है। यह दैत्यों को आक्रान्त करने वाला यम ही है, नल नहीं। कपटपूर्वक यह नलाकृति वाला दिखाई देता है। इसका त्याग करोगी तो क-तर अर्थात् सुख समुद्र रूप श्रेष्ठ (नल) वर ही प्राप्त होगा ।

           वरुण के पक्ष में धराजं पृथ्वीव्यां जायन्ते इति धराजानि स्थावरजङ्गमभूतानि तेषां गर्तिजीवनोपायो जलं तस्याः पतिः अर्थात् यह धराज पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाले स्थावर जङ्गम प्राणी की गति का पति अर्थात् वरुण है। क्या यह निश्चय नहीं करती हो? अपितु यही निश्चय करती हो। फिर वरण क्यों नहीं करती? अर्थात् तुम्हें वरण करना चाहिए। यह अतिमह अर्थात् अतिशय पूज्य अग्नि को भी अतिक्रान्त करने वाला है। यदि इसे छोड.ोगी तो इससे बड़ा शत्रु कौन होगा? अपितु यही तुम्हारा सबसे बड़ा शत्रु होगा अथवा इसे धराज (विष्णु) की गति (समुद्रशायी होने से) का पति वरुण रूप में निश्चय नहीं करती हो? अपितु अवश्य ही करती हो।             यदि तुम एनं = अ-विष्णु, इन-स्वामी है जिसके अर्थात् विष्णु भक्त वरुण को त्यागती हो तो यह हानि ही है। इससे कतर अर्थात् श्रेष्ठ वर कौन होगा? यहाँ भी सरस्वती वरुण का त्याग करने के विषय में सङ्केत करती है कि यह धराजगति अर्थात् स्थावरजङ्गम प्राणियों की गति है, जिससे इसे वरुण रूप में निश्चित नहीं करती हो अर्थात् निश्चय कर ही लिया। इसे वरण क्यों नहीं करती हो? यह नल नहीं है किन्तु अग्नि का नाशक वरुण है। यदि इसका त्याग करती हो तो तुम्हें महाप्राणों का लाभ होगा और तुम्हें श्रेष्ठवर नल की प्राप्ति होगी।

           नल के पक्ष में भूलोकस्य रक्षकः राजा, भूकामदेवः नलः अर्थ प्राप्त होता है। नैषधराज नल हैं गति जिसकी, देवों से भिन्न गुण विशिष्ट मनुष्य नल में तुम पति का निश्चय क्यों नहीं करती? और क्यों वरण नहीं करती? अपितु इसे नल मनुष्य जानकर वरण करना चाहिए। यदि इसे छोड.ती हो तो तुम्हारा अलाभ (हानि) ही होगा क्योंकि इससे भिन्न श्रेष्ठ कौन है? अर्थात् कोई नहीं अथवा यह देव नहीं वरन् भू लोक का स्वामी है अथवा धराजों (मनुष्यों) की गति से इसमें राजा का निश्चय क्यों नहीं करती हो?

           अथवा यह पृथ्वी पर अज अर्थात् कामदेव है। अत एव इसे मनुष्य जानकर नल का निर्णय कर वरण क्यों नहीं करती हो? अपितु यह वास्तविक नल है, छद्म नहीं। अतः तुम्हें इसका वरण करना चाहिए। अतिमा अर्थात् अत्यन्त सुन्दर बने हुए छद्म नलों (देवताओं) के त्याग में ही लाभ है। स्वाभाविक सौन्दर्य सम्पन्न नल का निश्चय कर उसका वरण करो। इससे श्रेष्ठ अन्य कोई लाभ नहीं होगा। इस प्रकार के विशिष्ट प्रयोग करके देवी ने दमयन्ती को वास्तविक नल और छद्म नलों के भेद से अवगत करवाने का प्रयास किया है। यहाँ कवि की वक्रोक्ति कुशलता व्यञ्जित होती है।

           विद्वज्जन अपनी प्रज्ञा से दूसरों के आशय को भलीभांति जान लेते हैं। नैषधीयचरितम् के अध्ययनोपरान्त यहाँ मनोवैज्ञानिक पक्ष का भी दिग्दर्शन होता, जहाँ नलाश्व चंचल होने पर भी मौन था क्योंकि वह जानता था कि राजा नल उसके मनोगत भावों से परिचित हैं -

चलाचलप्रोथतया महीभृते

                         स्ववेगदर्पानिव वक्तुमुत्सुकम् ।

अलं गिरा वेद किलायमाशयं

                                   स्वयं हयस्येति च मौनमास्थितम् ।।

                                                                       (नैषध 1/60)

           यहाँ अश्व के मौन व्यवहार को जानना नल की अश्वशास्त्रज्ञता को द्योतित करता है। नैषधकार अश्वों के मनोगत भावों को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि यदि समुद्र भी स्थल होता तो अश्व उसे भी क्षण भर में पार कर लेते परन्तु आकाश को जिस हरि (विष्णु) ने एक पैर से नापा था, चतुष्पाद होने के कारण नलहरि को उस हरि (विष्णु) का सङ्क्रमण करने में लज्जा आ रही थी ।

हरेयदक्रामि पदैककेन खं पदैः

                       चतुर्भिः क्रमणेऽसि तस्य नः ।

त्रपा हरीणामिति नम्रिताननैः

                       न्यवर्ति तैरर्धनभः कृतक्रमैः ।।

                                                                       (नैषध 1/70)

           इसका तात्पर्य यह है कि श्री हरि ने वामनावतार में अपने एक ही चरण से जिस आकाश का लङ्घन किया, वही आकाश आज नल हरि (अश्व) द्वारा चार चरणों में लाङ्घा गया है, जिससे उसने अतिशय लज्जा का अनुभव किया। यहाँ अश्व का अक्षुण्ण वेग और आकाश लङ्घन का सामर्थ्य ध्वनित होता है। हरि ऐसा समानार्थी नाम होने से नलाश्व की श्री हरि से कार्य और यश में समानता पाने की आशंसा व्यक्त होती है। इस प्रकार श्रीहर्ष की अश्वशास्त्र मर्मज्ञता के दर्शन होते हैं।

उदयति स्म तद्भुतमालिभिर्धरणिभृद्भुवि तत्र विमृश्य यत् ।

अनुमितोऽपि च वाष्पनिरीक्षणाद्वभिचचार न तापकरो नलः ।।

                                                                                   (नैषध 4/18)

           न्याय के अनुमान प्रमाण से ‘यत्र यत्र धूमः तत्र तत्र अनलःअर्थात् जहाँ जहाँ धूम है वहाँ अनल है का अनुमान होता है, इसी व्याप्ति को आधार बनाकर सखियों ने दमयन्ती के अश्रु प्रवाह से ‘यत्र यत्र वाष्पः तत्र तत्र अ नलःअर्थात् न नलः ऐसा अनुमान से जाना। सखियों का यह ज्ञान भी व्यभिचारी होने से अद्भुत है क्योंकि दमयन्ती के अश्रु प्रवाह को देखकर सखियों ने अनल रूप नल का ज्ञान कर लिया। इससे दमयन्ती की सखियों की अनुमान करने में निपुणता और विवेक का द्योतन होता है। यहाँ सखियों का भैमी के अश्रु प्रवाह की अतिशयता से उसके मनोभिप्राय को जानना उनकी प्रगाढ. मैत्री और विद्वत्ता को ध्वनित करता है क्योंकि विज्ञजन ही पराशय को शीघ्र जान लेते हैं।

गिरौ गिरः पल्लवनार्थलाघवे मितं च सारं च वचो हि वाग्मिता ।

                                                                                               (नैषध 9/8)

           वाग्मिता अर्थात् ‘प्रशस्ता वाक् अस्ति यस्य स वाग्मी, वाग्ग्मिनो भावः। ‘वाचोयुक्ति पटुर्वाग्ग्मीइत्यमरः। यहाँ वाच से वाचो ग्मिनिः (5/2/124) सूत्र से ग्मिनि प्रत्यय और वाग्मिन् से भावार्थ में तल् प्रत्यय होकर वाग्मिता पद निष्पन्न होता है। वाणी का विस्तार और अर्थ सङ्कुचन दोनों ही वाणी के विष रूप है और अल्प किन्तु सारयुक्त वचन ही पाण्डित्य है। अतः नल ने प्रत्युत्तर देते समय ऐसी ही वाणी का प्रयोग किया जो संक्षिप्त थी। इससे नल की पारदर्शिता और वैदुष्य सूचित होता है। यहाँ महाकवि द्वारा अभिप्राय व्यक्त किया गया है कि विबुद्ध जन सदा ही श्लिष्ट एवं सारगर्भित वाणी में अपना मन्तव्य प्रस्तुत करते हैं।

स धर्मराजः खलु धर्मशीलया त्वयास्ति चित्तातिथितामवापितः ।

ममापि साधुः प्रतिभत्ययं क्रमश्चकास्ति योग्येन हि योग्यसङ्गमः ।।

                                                                                                           (नैषध 9/56)

           धर्मशीलया अर्थात् ‘धर्मं शीलयतीति धर्मशीला तयायहाँ धर्म उपपद में रहते शीलि उपधारणे धातु से शीलिकामिभक्ष्याचरिभ्योणः (वा0 3/2/1) से अभ्यस्त अर्थ में ण प्रत्यय का प्रयोग है। धर्माचारिणी दमयन्ती ने धर्मराज को अपने चित्त का अतिथि बना लिया अर्थात् धर्म में अभ्यस्त दमयन्ती का अन्य की ओर आकृष्ट न होकर धर्मराज को अपनी और आकृष्ट करना उचित ही है क्योंकि योग्य से योग्य का सम्बन्ध ही अनुकूल है। यहाँ दमयन्ती की काम की अपेक्षा धर्मप्रधानता व्यक्त होती है। साथ ही चकास्ति योग्येन हि योग्यसङ्गमः सदुक्ति कवि के इस भाव को भी व्यक्त कर देती है कि यथा नैषध जैसे विलक्षण महाकाव्य का प्रणेता उत्कृष्ट एवं मेधा सम्पन्न है तथैव इसका अध्येता भी प्रखर प्रज्ञावान् होना आवश्यक है क्योंकि अयोग्य की योग्य से सम्बद्धता अशोभनीय होती है। योग्य सम्बन्ध की सार्थकता महाभारत में भी दृष्टव्य है -

ययोरेवं समं वित्तं ययोरेव समं श्रुतम् ।

तयोर्विवाहः सख्यं च न तु पुष्टविपुष्टयोः ।।

                                                                                               (महाभारत - आदिपर्व 131/10)

 

 

 

 

 

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

 

·         नैषधीयचरितम् प्रकाशाख्या, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, २००५

·         शुक्ला, डा. राम बहादुर, नैषधीयचरितम् की शास्त्रीय मीमांसा , ईस्टर्न बुक लिंकर्स दिल्ली, २००५

·         नैषधीयचरितम् जीवातु टीका, सन्ध्या शास्त्री, चौखम्बाकृष्णदास अकादमी, वाराणसी, २००३