ISSN 0976-8645
भारतीय
इतिहास लेखन में
संस्कृत अभिलेखों
का योगदान
अभय शंकर,
शोधार्थी,
का.सि.द. संस्कृत
विश्वविद्यालय,
दरभंगा
मो0
09934280064
भारतवर्ष
संसार के प्राचीनतम
एवं महानतम देशों
में अग्रगण्य है
ऋषियों की यह वाणी
‘एतद्देशप्रसूतस्य
सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं-स्वं चरित्रं
शिक्षेरन् पृथिव्यां
सर्वमानवाः’ के
गम्भीर उद्घोष
से विश्व के ज्ञानगुरू
पद को अलंकृत करता
था। भारतीय दर्शन
की ज्ञान-ज्योति
से समस्त विश्व
प्रभावित था। इसके
सत्साहित्य तथा
इतिहास को आक्रमणकारियों
द्वारा नष्ट कर
दिया गया। पाश्चात्य
मनीषियों ने यह
प्रवाद फैलाया
कि भारतवर्ष में
वहाँ के जन-जीवन
की झांकी प्रस्तुत
करने वाले इतिहास
का सर्वथा अभाव
है। कल्हण की राजतरंगिणी,
बिल्हण के विक्रमाङ्कदेवचरित,
बाण के हर्षचरित,
पुराणों आदि ग्रन्थों
ने इस भ्रान्ति
को दूर कर उन्हें
भारतीय इतिहास
के समृद्ध परम्परा
का ज्ञान प्रदान
किया।
स्वतन्त्र
भारत में इतिहास
निर्माण में अभिलेखों
ने अपना महत्वपूर्ण
योगदान दिया। इनमें
पत्थर तथा ताम्रपत्र
पर लिखे अभिलेखों
का विशेष महत्व
है। यथा:- ‘देवानां
प्रिय प्रियदर्शी’
अशोक के अभिलेख
(तीसरी शताब्दी
ई0पू0), खारबेल का
हाथीगुम्फा अभिलेख
(प्रथम शताब्दी
ई0पू0) रूद्रदामन
का गिरनार अभिलेख
(150 ई0), समुद्रगुप्त
का प्रयाग-प्रशस्ति
अभिलेख (चौथी शताब्दी),
पुलकेषिन द्वितीय
का ऐहोल अभिलेख
(634 ई0) आदि कुछ ऐसे
अभिलेख है जिन्होने
प्राचीन भारतीय
इतिहास का ढाँचा
खड़ा करने में विशेष
सहायता प्रदान
की। प्राचीन भारतीय
इतिहास भूगोल आदि
की प्रमाणिक जानकारी
के लिए अभिलेख
एक अमूल्य निधि
है। इनका महत्व
निम्न हैः-
(क)
राजनैतिक -
(1)
वंशावलियाँ
- अभिलेखों के परिशीलन
से तत्कालीन राजाओं
की वंशावलियाँ
ज्ञात होती है।
सर्वप्रथम रूद्रदामन
के गिरनार-अभिलेख
में रूद्रदामन
के साथ उसके दादा
चष्टन तथा पिता
जयदामन के नामों
की जानकारी प्राप्त
होती है। 150 ई0 में
रूद्रदामन के जूनागढ़
शिलालेख
में वर्णित उसकी
वंशावली का उल्लेख
-
‘स्वामिचष्टनस्य
पौत्रस्य राज्ञः
क्षत्रपस्य सुगृहीतनाम्नः
स्वामिजयदाम्नः
पुत्रस्य राज्ञो
महाक्षत्रपस्य
रूद्रदाम्नः।’
(2)
विजय वर्णनः-
अभिलेखों में राजाओं
ने अपनी विजयों
का भी वर्णन किया
है। चन्द्र का
मेहरौली - लौहस्तम्भ
-
यस्योद्वर्त्तयतः
प्रतीपमुरसा शत्रून्त्समेत्यागतान्
वङ्गेष्वाहववर्तिनोडभिलिखिता
खड्गेन कीर्तिर्भुज।
तीर्त्त्वा
सप्त मुखानि येन
समरे सिन्धोर्ज्जिता
वाहिलका
यस्याद्याप्यधिवास्यते
जलनिधिर्व्वीटर्यानिलैर्दक्षिणः।।
समुद्रगुप्त
का अभिलेख, रूद्रादामन
का अभिलेख विजय
का उत्तम उदाहरण
है।
(3) प्रजातन्त्रः- प्रजातन्त्र
के लिए उस समय गण
या संघ शब्द का
प्रयोग होता है।
यौधेय, कुषिन्द,
आर्जुनायन तथा
मालव संघ शासकों
के सिक्कों पर
स्पष्ट रूप से
खुदा है। यथा - यौधेय
गणस्य जयः मालवानां
गणस्य जयः, आर्जुनायनानां
जयः।
(4) राजतन्त्रः- मौर्य तथा
गुप्त-सम्राटों
के अभिलेखों से
राजतन्त्र प्रणाली
की शासन पद्धति
के सम्बन्ध में
ज्ञात होता है
कि साम्राज्य कई
प्रान्तों मंें
बंटा होता था जिसको
‘युक्ति’ कहते थे।
‘युक्ति’ भी कई जिलों
में बंटा होता
था जिन्हें ‘विषय’
की संज्ञा दी गई
है। जूनागढ़ लेख
में शकक्षत्रप
रूद्रदामन के प्रजा-वात्सल्य
के विषय में लिखा
है-
अपीडयित्वा
कर विष्ठि, प्रणय
क्रियाभिः, पौरजानपदं
जनं स्वस्मात्
कोषात् महता त्रिगुण्दृढतरविस्तारयामं
सेतुं विधाय सर्वतटे
सुदर्षन तरं कारितमिति।
(ख) समाजिक
तथा आर्थिक व्यवस्थाः-
अभिलेखों
में प्रसंगवश वर्णाश्रम
धर्म का भी उल्लेख
है। वैदिक शाखा,
गोत्र आदि भी वर्णित
है। समाज में जाति
प्रथा प्रचलित
थी। अशोक के अभिलेखों
में शूद्र के प्रति
उचित व्यवहार का
निर्देश है। गुप्तकालीन
अभिलेख में कायस्थ,
चाण्डाल आदि जातियों
का उल्लेख है।
मनोरंजन के साधनों
में मृगया, संगीत,
द्यूतक्रीड़ा का
उल्लेख मिलता है।
कृषि, पशुपालन,
व्यापार आदि का
प्रसंग आता है।
कुछ उदाहरणः-
चतुर्विध
सामान्य ब्राहमण
- इन्द्रापुरक
वाणिग्भ्यां क्षत्रियाचलवर्म
भ्रुकुंट सिंहाभ्याम्
(स्कंदगुप्त का
इंदौर ताम्रपत्र
लेख), गांधर्व ललितैः
व्रीडित त्रिदषपति
गुरू तुम्बरू नारदादे
(प्राचीन अभिलेख),
कुषाण तथा शक शासकों
के अभिलेखों से
ज्ञात होता है
कि उन्होनें हिन्दु
धर्म, संस्कृति
और भाषा से प्रभावित
होकर हिन्दु नामों
और रीति-रिवाजों
को स्वीकार कर
लिया था।
दानपत्रों
के विवरणों से
सुदृढ़ आर्थिक स्थिति
का पता चलता है।
नालन्दा-ताम्रपत्र
के ‘सम्यग् बहुधृत
बहुदधिभिर्व्यन्जनैर्युक्तमन्नम्’
से भोजन के उच्चस्तर
का पता चलता है।
सुदर्शन नामक तालाब
का रूद्रदामन तथा
स्कन्दगुप्त द्वारा
पुनः संस्कार कराया
गया। व्यापार क्षेत्र
में निगमों तथा
श्रेणियों का उल्लेख
अभिलेखों से मिलता
है। कुमारगुप्त
के मन्दसौर अभिलेख
स्थित पट्टवाय
श्रेणी अभिलेख
में श्रेणी द्वारा
सूर्यमन्दिर निर्माण
तथा पुनरुद्धार
का वर्णन है। उनके
द्वारा बुने रेशम
विश्व विख्यात
थे। निगमों द्वारा
बैंक कार्य का
भी उल्लेख मिलता
है।
(ग)
धार्मिक स्थितिः-
अभिलेखों
से विभिन्न कालों
में धार्मिक स्थिति
का विशद विवरण
प्राप्त होता है।
अशोक के अभिलेखों
से विदित होता
है कि उसके काल
में बौद्ध धर्म
का विशेष प्रचार
था तथा वह स्वयं
इस सिद्धान्त से
प्रभावित था। उदयगिरि
के गुहालेखों में
उड़ीशा में
जैनमत के प्रचार
का पता चलता है।
गुप्तकालीन अभिलेखों
से विदित होता
है कि गुप्त सम्राट
वैष्णव धर्म के
अनुयायी थे तथा
उस काल में भागवत
धर्म का प्राधान्य
था। यह भी स्पष्ट
होता है कि विभिन्न
स्थानों पर सूर्य,
शिव, शक्ति, गणेश
आदि की पूजा होती
थी। यज्ञ, दान, मन्दिर-निर्माण,
मन्दिर-जीर्णोद्धार,
प्रतिमा-स्थापन,
देव-पूजन, व्रत,
तीर्थयात्रा आदि
का वर्णन है।
अभिलेखों
के अध्ययन से धार्मिक
सहिष्णुता और साम्प्रदायिक
सद्भाव का पूर्ण
परिचय मिलता है।
अशोक ने अपने 12वें
शिलालेख में आदेश
दिया है कि सब मनुष्य
एक दूसरे के धर्म
को सुने और सेवन
करे। (अञमञस
ध्रमो श्रुणेयु
च सुश्रुषेयु च
ति)
(घ)
साहित्यिक महत्व
-
अभिलेखों
का विशेष साहित्यिक
महत्व है। इनसे
संस्कृत और प्राकृत
भाषाओं की गद्य,
पद्य आदि काव्य
विधाओं के विकास
पर प्रकाश पड़ता
है। मैक्समूलर
का विचार था कि
ईसा की प्रारम्भिक
शताब्दियाँ संस्कृत
साहित्य का अन्धकार
युग था किन्तु
रूद्रदामन के गिरनार
अभिलेख (150 ई0) के प्रकाश
में आने पर यह भ्रान्ति
दूर हो गई। यह अभिलेख
संस्कृत गद्य के
अत्युत्तम उदाहरणों
में से एक है। इसमें
अलंकार, रीति आदि
गद्य के सभी सौन्दर्य
विधायक गुणों का
वर्णन है। यथा-
रूद्रदामन के प्रति
यह विषेषण-‘‘स्फुटलघुमधुरचित्रकान्तशब्दसमयोदारालंकृतगद्यपद्य
काव्य -विधानप्रवीणेन’’
समुद्रगुप्त
की प्रयाग-प्रशस्ति
भी गद्य-पद्यमय
चम्पू-काव्य का
एक अनुपम उदाहरण
प्रस्तुत करती
है। मन्दसौर का
पट्टवाय श्रेणी-अभिलेख,
यशोधर्मन कालीन
कूपशिलालेख, पुलकेषीन-2
का ऐहोलशिलाभिलेख
आदि अनेक अभिलेख
पद्य-काव्य के
उत्तम उदाहरण है।
इन अभिलेखों से
हरिषेण, वत्सभट्टि,
रविकीर्ति आदि
ऐसे अनेक कवियों
का नाम प्रकाश
में आ गया जिनका
संस्कृत साहित्य
में अन्यत्र नाम
तक उपलब्ध नही
है। चाहमान वंशी
विग्रहराज के काल
का सोमदेवरचित
ललितविग्रह-नाटक
और विग्रहराजकृत
हरकेलि-नाटक प्रस्तरशिला
पर अंकित नाट्य
साहित्य के सुन्दर
उदाहरण है।
अभिलेखों
में कुछ दोष भी
व्याप्त है। भारतीय
अभिलेखों का मुख्य
दोष उनका अतिशयोक्तिपूर्ण
वर्णन है। अधीनस्थ
राजा या सामन्त
अपनी प्रशस्तियाँ
इस प्रकार लिखवाते
थे जिससे उसके
स्वतन्त्र या अधीन
होने के दोनों
प्रकार के अर्थ
ग्रहण किये जाते
थे। इन दोषों के
होते हुए भी अभिलेखों
में पाठ-भेद का
सर्वथा अभाव है
और प्रक्षेप की
सम्भावना शून्य
के बराबर होती
है। अभिलेखों ने
इतिहास लेखन को
एक नया आयाम दिया
है जिसके कारण
भारतीय इतिहास
एक सर्वोच्च चोटी
पर स्थित हुआ है।
अभिलेखों ने चतुर्मुखी
इतिहास लेखन को
प्रशस्त किया है।
अतः इतिहास लेखन
में अभिलेख सर्वाधिक
उपयोगी है। अभिलेख
सर्वाधिक महत्वयुक्त
है।
सन्दर्भ
ग्रन्थ
1 प्राचीन
भारतीय इतिहास
एवं संस्कृति
- के0 सी0 श्रीवास्तव
2 अद्भुत
भारत - ए0 एल0 बाशम
3 उत्कीर्णलेखस्तवकः
- डा0 जियालाल कम्बोज
4 उत्कीर्णलेखांजलि
- जयचन्द्र विद्यालंकार
5 भारतीय
पुरा लिपि - डा0 राजबली
पाण्डेय