ISSN 0976-8645

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भारतीय काव्यशास्त्र पर शैव दर्शन का प्रभाव

-योगेश शर्मा

विशिष्ट संस्कृत अध्ययन केन्द्र,

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली

 

अन्य दर्शनों की भाँति शैवदर्शन और साहित्यशास्त्र भी एक-दूसरे से सम्बद्ध है। वस्तुत शैवदर्शन व साहित्यशास्त्र एक-दूसरे से समानान्तर हैं। किसी शास्त्र की शुरुआत प्रयोजनमूलक होती है। शैवदर्शन व साहित्यशास्त्र की प्रयोजनमूलक अवधारणा पर दृष्टिपात् करने से दृष्टिगत होता है कि दोनों का उद्देश्य है प्रीति या परनिर्वृत्ति अर्थात् आनन्द। जिसके लिये दोनों ही शास्त्रों (प्रत्यभिज्ञाशास्त्र एवं साहित्यशास्त्र) में विश्रान्ति शब्द का प्रयोग मिलता है।

साहित्यशास्त्र का प्रमुख विषय रस सिद्धान्तत एवं प्रयोगत आनन्दात्मक है, जो पूर्णत शैवदर्शन की देन कही जा सकती है। क्योंकि अभिनवगुप्त पादाचार्य से पूर्व की रससूत्र की व्याख्याओं में परिलक्षित होता है कि रस सुखदुखात्मक था।1

इस प्रकार रस में आनन्द की प्रतिष्ठा करने वाला मुख्यत शैवदर्शन है। शैवदर्शन में आत्मा को चेतन एवं आनन्दमय कहा गया है।2 वही विश्व के समस्त पदार्थों में अनुस्यूत है। इसे ही चैतन्य परासंवित्, अनुत्तर परमेश्वर, परमशिव कहा गया है। वह नाना विचित्रता-संवलित जगत् परमशिव से अभिन्न तथा उसका स्फुरण मात्र है।3

तन्त्रालोक में आचार्य अभिनव ने सम्पूर्ण जगत् को आनन्दशक्ति का स्फार विस्तार कहा है।4 आनन्दशक्ति से ही सम्पूर्ण विश्व सृजित होता है किन्तु जीव मायाजनित कला, विद्या, राग, काल, नियति, नामक पाँच कंचुक से आवृत्त किये जाने पर सीमित शक्तिमान होता है। जीव अर्थात् पुरुष को सम्पूर्ण जगत् जो शिव की कला होने से आनन्दमय है, दुखरूप प्रतीत होता है। अेद में ेद-बुद्धि का उदय हो जाता है, परन्तु जगत् के परमानन्दमय परमशिव का ही व्यक्त रूप का ज्ञान हो जाने पर अपरिमित आनन्द की उपलब्धि होती है। चेतना का यह रूप स्फुरता, विमर्श, आनन्द आदि भिन्न-भिन्न नामों से अभिहित होता है। यह देशकाल की सीमा से ऊपर है। इसे ही परमशिव का हृदय भी कहा जाता है। इसी हृदय का धारक सहृदय है। हृदय की इस स्पन्दमानता स्फुरद्रूपता के सहारे व्यक्ति दुखादि ावनाओं में भी आनन्दमय रहता है क्योंकि विश्व को परिव्याप्त करने वाली आनन्द की मूल चेतना इससे स्फुरित हो उठती है। वही साहित्य की रसात्मक अनुूति है, जो देशकाल परिमित आदि रस विघ्नों से मुक्त होकर सहृदय की आनन्दकारा स्थिति है।

साहित्यशास्त्र एवं प्रत्यभिज्ञाशास्त्र दोनों ही प्रमातावादी दृष्टि रखते हैं। दोनों ही शास्त्रों में प्रमाता को केन्द्र में रखकर उसी की मनस्थितियों का विश्लेषण किया गया है। प्रत्यभिज्ञाशास्त्र में प्रमाता की जहाँ सात श्रेणियाँ बतायी गयी हैं, उसी प्रकार साहित्यशास्त्र में अधिकारी के  कई स्तर बताये गए हैं। जिसमें रत के प्रेक्षक के प्रेक्षक से लेकर अभिनव के वीतवीघ्न सहृदय आदि समाविष्ट हैं। दोनों ही आनन्दवादी दृष्टिकोण के कारण वस्तुनिष्ठता के स्थान पर व्यक्ति निष्ठता की प्रबलता से प्रस्तुत करते हैं, यही दृष्टिकोण ही दोनों शास्त्रों की प्रमातापरक विचारधारा का आधार है। उपर्युक्त विश्लेषण से तो स्पष्ट होता है कि साहित्यशास्त्र एवं शैवदर्शन एक-दूसरे के काफी निकट हैं।

प्रत्यभिज्ञा दर्शन में परमशिव को कलाकार माना गया है। जिस प्रकार अभिनयादि कलाकार का स्वाव होता है, उसी प्रकार परमशिव भी अपनी कला के द्वारा शिव का आासन करते हैं। जिस प्रकार साहित्यशास्त्र में नाट्य को ाव का अर्थात् सत्ता का अनुकीर्त्तन कहकर उसके सत्तावान् होने का समर्थन किया गया है5, उसी प्रकार परमशिव के द्वारा आासित सृष्टि रूपी नाटक भी सत् है।

शैवदर्शन व साहित्यशास्त्र की निकटता का ही कारण यह भी है कि शैवदर्शन जिस दर्शन का परम तत्त्व कलाकार है। उसके लिये कला उसका प्रियतम विषय होगा। यही कारण है कि शैवदर्शन के आचार्यों ने संगीत, साहित्य, चित्रकला आदि पर समानाधिकार रखते हुए उन्हें अपने ग्रन्थों में स्थान दिया है। ारतीय परम्परा के अनुसार 64 कलाओं में साहित्यशास्त्र सर्वाधिक लोकप्रिय कला है। जिसे प्रत्यभिज्ञा दर्शन में समान महŸव दिया गया है। इसीलिये शैवदार्शनिकों ने साहित्यशास्त्रीय विषयों पर समस्याओं को शैव दर्शन के आधार पटल पर बहुत ही आसान तरीके से सुलझाया है, जैसे कि रसाभिव्यक्ति, सहृदय की अवधारणा आदि।6

दोनों के अन्तसम्बन्ध के विषय में गवेषणा करने पर कई पक्ष उर कर सामने आते हैं। साहित्यशास्त्र और प्रत्यभिज्ञाशास्त्र के कुछ आचार्य ऐसे हैं जिन्होंने दोनों ही पक्षों पर समान दृष्टि से विचार किया है। ऐसे आचार्यों के द्वारा दर्शन एवं साहित्यशास्त्र दोनों को पारस्परिक रूप से प्रावित किया गया है। उनके द्वारा दार्शनिक विषयों को स्पष्ट करने हेतु साहित्यिक उदाहरणों का प्रयोग किया गया है एवं साहित्यशास्त्रीय विषयों को समझने हेेतु दार्शनिक उदाहरणों का प्रयोग किया गया है। आचार्य वसुगुप्त रचित शैवदर्शन के प्रथम ग्रन्थ शिवसूत्र में ही कई साहित्यिक रूपकों का उल्लेख मिलता है। वहाँ आत्मा को नर्त्तक एवं इन्द्रियों को प्रेक्षक कहा गया है।7

कश्मीर परम्परा के सी साहित्यशास्त्रीय ग्रन्थों में प्राय शैवदार्शनिक शब्दावली का प्रयोग मिलता है, यहाँ तक कि गन्थों के नामकरण का आधार भी वही प्रतीत होता है। मम्मट कृत काव्य में प्रकाश शब्द का प्रयोग दर्शाता है कि मम्मट शैवदर्शन से प्रावित थे जो मंगलाचरण में प्रयुक्त ‘नियति’8 शब्द के प्रयोग से और भी स्पष्ट हो जाता है। ‘नियति’ शब्द वस्तुत शैवदर्शन का एक पारिाषिक शब्द है। मम्मट ने मंगलाचरण में उल्लेख किया है कि ‘नियतिकृता नियमरहिताम्।’

उपर्युक्त पंक्ति की वृत्ति में आचार्य मम्मट ने उल्लेख किया है कि ‘नियति शक्त्या नियतरूपा’।9 इसकी व्याख्या करते हुए गणेशत्र्यम्बक देशपाण्डे ने लिखा है कि ‘मम्मट के कथन का तात्पर्य है कि कवि की सृष्टि नियति के नियमों से मुक्त है। जबकि ब्रह्मा की सृष्टि नियति के नियमों से संचालित होती है। कश्मीर शैवदर्शन में नियति ‘शक्ति’ का एक रूप है जो मायीय जगत् में कार्यरत है। इसकी परिाषा इस प्रकार है - नियतिर्योजनां धत्तं विशिष्टे कार्यमण्डले। इसे हम कार्य-कारण-सम्बन्ध की एक शृंखला अथवा व्यावहारिक  जगत् का एक प्रकार का यान्त्रिक कारणता नियम कह सकते हैं। कवि ऐसे किसी यान्त्रिक कारणता नियम से नहीं बँधता।10

इससे स्पष्ट होता है कि मम्मट शैवदर्शन के अच्छे जानकार एवं उससे प्रावित थे।

इसके अतिरिक्त कुन्तक, अभिनवगुप्त, जयरथादि ऐसे नाम हैं, जिनके साहित्यशास्त्रीय ग्रन्थों में शैवदार्शनिक शब्दावली प्रायश परिलक्षित होती है। आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्तिजीवित में स्थान-स्थान पर स्पन्द शब्द का प्रयोग किया है।11 उनके ग्रन्थ में स्पन्द शब्द का प्रयोग लगग शताधिक बार हुआ है। यह ‘स्पन्द’ शब्द शैवाद्वैत की स्पन्द शाखा का प्रधान तत्त्व है।

आचार्य अभिनवगुप्त शैवाद्वैत दर्शन के प्रधान आचार्य हैं, साथ ही साहित्यशास्त्रीय परम्परा में भी इनका प्रमुख स्थान है। आचार्य अभिनव ने तन्त्रालोक एवं अन्य दार्शनिक ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर साहित्यिक रूपकों की चर्चा की है। आचार्य अभिनवकृत साहित्यशास्त्रीय गन्थों में शैवदर्शन का प्राव पूर्णत परिलक्षित होता है। वास्तविकता यह है कि उनके द्वारा रचित साहित्यशास्त्रीय ग्रन्थों को प्रत्यभिज्ञा दर्शन की आधारूमि के बिना समझना संव नहीं है। अभिनवारती में वर्णित अधिकारी तथा लोचन में वर्णित सहृदय का सम्बन्ध वस्तुत ‘हृदय’ से है। हृदय मूलत शैवदर्शन का महŸवपूर्ण तत्त्व है, जिसे विमर्श, आनन्द, शक्ति, प्रत्यवमर्श, स्फुरत्ता जैसे भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है। अभिनवारती में रसानुूति की दशा को संविद्विश्रान्ति, समापत्ति आदि शब्दों से अभिहित किया गया है, जो शैवदर्शन में परमशिवमयता के लिये प्रयुक्त होते हैं।

वक्रोक्तिजीवित एवं शैवाद्वैत दर्शन -

वक्रोक्तिजीवित काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ है जो पूर्णत शैवदर्शन से सम्बद्ध है क्योंकि इसके रचनाकार आचार्य कुन्तक शैव थे। उनके इस काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ को देखकर प्रतीत होता है कि उन पर कश्मीर शैवदर्शन की स्पन्द शाखा का प्राव है। वक्रोक्ति जीवित में अध्यायों को उन्मेष कहा गया है। उन्मेष शैव दर्शन का पारिाषिक शब्द है। यह सृष्टि सम्बद्ध शब्द है। तन्त्रसार की नीरक्षीर विवेक व्याख्या में उन्मेष को परमेश्वर की तीसरी शक्ति कहा गया है। यह आद्य परिस्पन्द है। वैचारिक उल्लास शक्ति है।12

वक्रोक्तिजीवित में अनेकश स्थान-स्थान पर भिन्न-भिन्न रूपों में (स्पन्द, स्वस्पन्द, परिस्पन्द) प्रयुक्त शब्द मूलत स्पन्दर्शन का महŸवपूर्ण तत्त्व है। वक्रोक्तिजीवित के मंगलाचरण में ही कुन्तक परिस्पन्द शब्द का प्रयोग किया है जो शक्ति स्वरूप है।13

स्पन्द शब्द ‘स्पदि किंचिच्चलने’ धातु से निष्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ ‘किंचित् चलन’ है। स्पन्द की व्याख्या में उत्पलाचार्य ने कहा है कि ‘स्पन्दनश्च निस्तरङ्गस्यास्य तावत् परमात्मन युगपन्निर्विकल्पा या सर्वत्रौन्मुख्यवृत्तिता।’ अर्थात् समस्त आकारों में औन्मुख्यवृत्तिता अर्थात् उसकी ओर उन्मख हो जाना स्पन्द है। इसके दो रूप हैं -

1.         सामान्य स्पन्द - इस जगत् के परमकारणूत सत्य अपने स्वरूप का यह मैं हूँ इसी से सब प्रूत होता है। इसी में सब प्रलीन हो जाता है। इस प्रकार का जो परामर्श रूप आन्तरिक ज्ञान है, वह सामान्य स्पन्द है।14

2.         विशेष स्पन्द - अनात्मूत देहादि में अपने अभिमान की उद्ावना करते हुए एक-दूसरे से भिन्न मायाजन्य प्रमाताओं के विषयूत मैं सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ, इत्यादि सŸव, रजस् एवं तमोरूप युक्त ज्ञान के प्रवाह रूप संसार के जो कारण हैं, वेेे विशेष स्पन्द है।15

वक्रोक्ति जीवित में स्पन्द शब्द का कई रूपों में प्रयोग किया गया है। आचार्य कुन्तक ने स्पन्द का प्रयोग स्वाव के पर्याय के रूप में किया है। ‘काव्ये य सहृदया काव्यार्थ विदस्तेषामाह्लादमानन्दं करोति यस्तेन स्वस्पन्देन आत्मीयेन स्वावेन सुन्दर सुकुमार इति।’16 ‘यत्र यस्मिन् ावानां स्वाव स्वपरिस्पन्द सरसाकूतो रसनिर्राभिप्राय इत्यादि।’17

उपर्युक्त दोनों उद्धरणों में कुन्तक ने स्पन्द का प्रयोग स्वाव के पर्याय रूप में किया है। शैव दर्शन में भी स्पन्द का अर्थ स्वाव ही है। यह शक्ति का स्वाव है।

इसके अतिरिक्त स्पन्द शब्द का प्रयोग धर्म के पर्याय रूप में विलसित के पर्याय रूप में भी हुआ है। जो पूर्णत शैवदर्शन से प्रावित अवधारणा है।

प्रतिा -

प्रतिा कवि कर्म का प्रधानूत कारण है, जो काव्यसर्जना का आधार है। काव्य में प्रतिा की अवधारणा भी शैव दर्शन से प्रावित रही है। जिस प्रकार परमशिव अपनी स्वातन्त्र्य शक्ति से विश्व का उन्मीलन करते हैं, उसी प्रकार कवि भी प्रतिा रूप अपनी स्वातन्त्र्य शक्ति से काव्य का निर्माण करता है। परमशिव की तरह कवि भी काव्यजगत् के रूप में स्वयं को ही व्यक्त करता है। कवि की इच्छा शक्ति का स्वातन्त्र्य काव्यजगत् में प्रतिा कहलाता है।

कवि सृष्टि के प्रसंग में इसे प्रतिा कहते हैं और परमशिव जब स्वयं को व्यक्त करते हैं तो उस सन्दर् में इसके लिये ‘परा प्रतिा’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। प्रतिा एवं परा प्रतिा के रूप में परा (परावाक्, पराशक्ति) की यह तत्त्व मीमांसीय अवधारणा ही प्रतिा (कवि सृष्टि) की काव्य सम्बन्धी अवधारणा का मूल है। कवि और परमशिव दोनों ही अपने-अपने संसार को अपनी स्वतन्त्र इच्छा के अनुसार व्यक्त करते हैं। कवि के सन्दर् में आनन्दवर्द्धनाचार्य द्वारा कहा गया है कि -

अपारे काव्यसंसारे कविरेव प्रजापति।

यथास्मै रोचते विश्वम् तथेदं परिवर्त्तते।।18

दूसरी ओर प्रत्यभिज्ञाहृदयम् में क्षेमराज कहते हैं -

सा स्वेच्छया स्वभित्तौ विश्वमुन्मीलयति।19

अभिनवगुप्त ने इसे चित्प्रतिा भी कहा है। जिसका अर्थ चैतन्यात्मक इच्छा है। इच्छा ही प्रतिा है। प्रज्ञा है। आदिम स्पन्दन के बार-बार उल्लसित होने की आकांक्षा है।20

प्रतिा का लक्षण आचार्य अभिनवगुप्त ने साहित्यशास्त्रानुसार ही दिया है। प्रतिानवनवोल्लेखशालित्वात्प्रतिामित्युक्तम्। यहाँ यह शैवी शक्ति का उन्मेष है।21 अभिनवगुप्त इसी प्रतिा को कविसृष्टि का भी कारण मानते हैं -

आद्योद्रेकमहŸवेऽपि प्रतिात्मनि निष्ठिता।

धु्रवं कवित्व वक्रत्वशालितां यान्ति सर्वत।।

अर्थात् प्रमाता में कवित्व शक्ति, वक्तृत्व शक्ति का अथवा शास्त्र निर्माण शक्ति का सामर्थ्य भी प्रतिा से उच्छलित हो उठता है।22 अत प्रतिा अभिव्यक्ति का कारण है।23 यह प्रतिा कवि की काव्यसृष्टि के लिये ही आवश्यक नहीं है, अपितु व्यंग्यार्थ प्रतीति कराने हेतु इसका सहृदय सामाजिक में होना भी नितान्त आवश्यक है।24 दर्शनशास्त्रीय आध्यात्मिक पृष्ठूमि में भी प्रतिा को दोनों स्तरों पर परिाषित किया गया है। प्रथम स्तर (उन्मेष) में वह परमशिव की शक्ति है, तो द्वितीय स्तर पर वह व्यक्ति प्रमाता की आध्यात्मिक शक्ति है। जिसके आश्रय से व्यक्ति सर्वोच्च प्रकाश में स्थित हो जाता है। तन्त्रालोक में भी कहा गया है कि -

‘‘प्रतिा व्यक्ति को वैयक्तिकता के धरातल से उठाकर सद्विद्या की दशा तक पहुँचा देती है। इस दशा में वह शक्ति तत्त्व के रूप में जाना जाता है। यदि मनुष्य सद्विद्या के धरातल से नहीं उतरता तो वह शिव ही हो जाता है।’’25

इस प्रकार प्रतिा की अवधारणा भी प्रत्यभिज्ञाशास्त्र से प्रावित रही है। प्रतिा को अभिनवगुप्त एवं उनके गुरु ट्टतौत ने साहित्यशास्त्र में स्थापित किया है। वह शैवाद्वैतवादी दार्शनिक दृष्टि के कारण ही सम्व हुआ है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि साहित्यशास्त्र एवं प्रत्यभिज्ञा शास्त्र (शैवदर्शन) में गहरा सम्बन्ध है। साहित्यशास्त्र में न केवल अभिनवकृत ग्रन्थों का ही अपितु परवर्ती ग्रन्थकारों में कश्मीर शैवदर्शन का प्राव परिलक्षित होता है। आचार्य विश्वनाथ के रसस्वरूप में पूर्णत शैवाद्वैतवादी दृष्टि ही प्रतीतिगोचर होती है।

सन्दर्

1.         सुखदुखस्वावो रस। अभिनवारती, षष्ठ अध्याय पृ. 244

2.         चैतन्य आत्मा आनन्दमय। शिवसूत्र 1.1

3.         श्रीमत्परम शिवस्य परमानन्दमय प्रकाशैकघनस्य एवंविधमेव शिवादिधरण्यन्तमखिलमेदेनैव स्फुरति। न तु वस्तुत अन्यत् किंचित् ग्राह्यं ग्राहकं वा। अपितु परमशिवट्टारक एव इत्थं नाना वैचित्र्यसहस्रै स्फुरति। प्रत्यभिज्ञाहृदय, सूत्र 3

4.         सर्वैवायं विश्वप्रपंच आनन्द शक्ति विस्फार। तन्त्रालोक, आह्निक 3, ाग 1, पृ. 478

5.         नाट्यावानुकीर्त्तनम्। नाट्यशास्त्र, द्वितीय अध्याय

6.         नर्तक आत्मा - (क) नृत्यति अन्तिर्निगूहितस्वस्वरूपावष्टम्मूले, तत्तज्जागरादि नानाूमिकाप्रपञ्चं, स्वपरिस्पन्द- लीलयैव स्वभित्तौ प्रकटयति। इति नर्त्तक आत्मा। शिवसूत्रवृत्ति 3.9

            (ख) रङ्गोऽन्तरात्मा - रङ्ग तत्तद्ूमिकाग्रहणस्थानम्, अन्तरात्मा संकोचावासा सत्Ÿव शून्य प्रधान प्राणप्रधनो वा पुर्यष्टकनियन्त्रितो जीव। तत्र हि अयं कृतपद स्वकरणपरिस्पन्दक्रमेण जगन्नाट्यमाासयति। वही 3.10।

            (ग) प्रेक्षकाणीन्द्रियाणि - संसारनाट्यप्रकटनप्रमोदनिर्रं स्वत्वरूपम् अन्तर्मुखतया साक्षात् कुर्वन्ति। वही 3.11

7.         काव्यप्रकाश, मंगलाचरण

8.         काव्यप्रकाश, मंगलाचारण की वृत्ति

9.         अभिनवगुप्त, पृष्ठ 113

10.       वक्रोक्तिजीवित, मंगलाचरण, कारिका

11.       यस्यान्मेषनिमेषाभ्यां जगत प्रलयोदयो। तं शक्ति चक्रविवप्रवं शङ्करं स्तुम। स्पन्दकारिका 1.1

12.       परमहंस मिश्र, तन्त्रसार (नीरक्षीरविवेक व्याख्या), तृतीय आह्निक, पृ. 60

13.       जगत्त्रितयवैचित्र्यचित्तकर्मविधायिनम्।

            शिवं शक्तिपरिस्पन्दमात्रोपकरणं नुम।। वक्रोक्तिजीवित, मंगलाचरण

14.       परमकारणूतस्य सत्यस्य आत्मस्वरूप ‘अयमहमस्मि’ अत सर्व प्रवति अत्रैव च प्रलीयते इति प्रत्यव-मर्शात्मकी निजोधर्म सामान्यस्पन्द। स्पन्दकारिकाविवृत्ति 2.5

15.       विशेषस्पन्दा अनात्मूतेषु, देहादिषु, आत्माभिमानमुद्ावयन्त परस्परभिन्नमायीयप्रमातृविषया सुखितोऽहं दुखितोऽहमित्यादयो गुणमया प्रत्यवप्रवाहा संसारहेतव। वही

16.       वक्रोक्तिजीवित, 1.9 टीका

17.       वक्रोक्तिजीवित, 1.4 की वृत्ति

18.       ध्वन्यालोक

19.       प्रत्यभिज्ञाहृदयम्, सूत्र 2

20.       असौ प्रतिा प्रज्ञा नाम आद्योच्छलत्तात्मकत्वेन बहिरुल्लिलसिषास्वावाम्। तन्त्रालोक, ाग 1 आह्निक प्रथम, पृ. 20

21.       तन्त्रालोक, ाग 4, पृ. 161-162

22.       वही, 11.78

23.       प्रतिावद् गुरुशास्त्रादि लक्षणापि प्रमाणमभिव्यक्ति निमित्तमस्ति इति। वही, 13.155, पृ. 516

24.       अधिकारी चात्र विमलप्रतिानशालिहृदय। अभिनवारती, अध्याय षष्ठ

25.       स एव प्रतिायुक्त शक्तित्वं निगद्यते।

            तत्पातावेशतो मुक्त शिव एव वार्णवात्।। तन्त्रालोक 13.118