ISSN 0976-8645
जैन - धर्म
Dr. Mukesh Kumar Jha
ईस्वी
पुर्व की छठी
शताब्दी मानव
इतिहास में एक
विशिष्ट युग
था I
इस काल में
अनेकों देशों
में असाधारण बौद्धिक
और चिंतन के
आन्दोलन चले I फ़ारस में
जरथुष्ट्र (Zarathustra)
और चीन में
कनफ़्युसियस (Confucius)
अपने
उपदेशों का
प्रचार कर रहे
थे Iभारत
में भी अनेक
असमान्य
चिंतक सत्य की
अनवरत खोज में
संलग्न थे I[1]
इनका
केन्द्र विशेषतः
मगध था जहां
ब्राह्मण
धर्म का
प्रभाव अभी तक
इतना गहरा न
हो सका था I
उपनिषदों ने
इस काल के
पुर्व ही
पेंचीदे कर्मकांड
के विरुद्ध
विद्रोह कर
दिया था Iब्राह्मणों
का अहंकार और
वर्णवाद की
एकांतता ने
समाज को
सर्वथा जकड
दिया था I इस
सामाजिक
परिस्थिति ने
अन्य सिद्धांतों
के अंकुरित
होने के अर्थ
उचित भूमि स्वाभाविक
ही प्रस्तुत
कर दी थी I चिंतकों
एवं
प्रचारकों के
दल के दल देश
में पर्यटन और
प्रचार कर रहे
थे I आत्मा
और परमात्मा
के रहस्यों का
विश्लेषण और
जन्म-मरण के
चक्र से मोक्ष
के साधन
स्वरूप कठोर
तप की
व्यवस्था
चारों ओर दी
जा रही थी I अनेक
सुधारवादी
सम्प्रदाय उठ
खडे हुए थे I[2] परंतु या तो
उनका अकाल मॄत्यु
हो गयी अथवा
कालांतर में
उनके प्रचार की
आवश्यकता
नहीं रही Iपरंतु
इनमें से कुछ
सम्प्रदाय
काफ़ी समर्थ भी
सिद्ध हुए और
जैन धर्म उनमे
से एक था Iवस्तुतः
आज भी जैन
सम्प्रदाय
अनेक प्रकार
से मानव
विश्वास की
दॄढ्भित्ति बना
हुआ है I
जैनों के
अनुसार उनके
धर्म का
प्रारंभ
सुदूर अतीत
में हुआ I
उनका विश्वास
है के महावीर
अंतिम
तीर्थकार थे
जिनसे पहले २३
तीर्थकार और
हो चुके थे I इनमें से
प्राचीनतम के
बाद वाले
अर्थात दूसरे
पार्श्वनाथ
ऐतिहासिक
व्यक्ति
थे,परंतु अन्य
तीर्थकारों
की आकाररेखाएं
नितांत
अस्पष्ट और
अतर्क्य जन-विश्वासों
से ढकी पडी है I पार्श्वनाथ
काशी के राजा
अश्वसेन के के
पुत्र थे और
जिन्होनें तप
की तुष्टि के
अर्थ राजकीय
विलास का जीवन
त्याग दिया I उनके मुख्य
उपदेश चार थे:-
१, अहिंसा,२.
सत्यभाषण, ३.
अस्तेय और ४.
सम्पत्ति का
त्याग I
पार्श्वनाथ
का देववाद में
विश्वास नहीं
था । उन्होंने
वर्ण –
व्यवस्था का
विरोध किया तथा
सामाजिक समानता
की भावना को
जाग्रत किया।
उन्होंने प्रत्येक
मानव , चाहे वह
शुद्र हो अथवा
स्त्री,को
मोक्ष
प्राप्त करने का
अधिकारी
बताया। उनके
अनुनायियों
को ’निर्ग्रंथ’
कहा जाता है। वस्तुतः
कहा नहीं जा
सकता कि
पार्श्वनाथ
कहां तक अपने प्रचार
में सफ़ल हुए,
परंतु २५०
वर्ष बाद होने
वाले
चौबीसवें
तीर्थकार
महावीर ने
निस्संदेह
धर्म को विशेष
प्रतिष्ठा दी I महावीर का
प्राकॄत नाम
वर्धमान था I वैशाली के
समीप
कुण्डग्राम
में उनका जन्म
सन ५९९ ई०
पुर्व में तथा
मॄत्यु सन ५२७
ई० पु० में
पवापुरी में
हुई थी I उनका
कुल
अभिजातवर्गीय
था I ३०
वर्ष तक सुखी
गॄहस्थ का
जीवन बिता
वर्धमान
प्रव्रजित हो
गये। फ़िर
उन्होनें
कठिन तप किया
और १२ वर्ष की
लंबे तप से
अपना शरीर को
सर्वथा
दुर्बल कर
लिया I अंत
में उनको
कैवल्य
प्राप्त हुआ
और उन्हें
निर्ग्रंथ
(बंधन रहित)
अथवा ’जिन’ (
विजयी ) हुई I इसी जिन से
उनके
अनुयायियों
को जैन कह कर
संबोधित किया
गयाI कुछ विद्वान
पार्श्वनाथ को
ही जैन धर्म का
वास्तविक संस्थापक
मानते हैं[3]
इसके तीस
वर्ष बाद ७२
वर्ष की आयु
में अपनी मृत्यु
तक महावीर
मगध, अंग,
मिथिला और
कोशल में
निरंतर अपने
सिद्धांतो का
प्रचार करते
रहे I
पार्श्वनाथ
के चारों
सिद्धांतों
के साथ उन्होंने
अपना पांचवां
शुद्ध
पवित्रता का
सिद्धांत जोड़ा।
उन्होने
सम्यक जीवन, सम्यक
दर्शन एवं
सम्यक चरित्र
जैसे
त्रिरत्न पर
जोड दिया । आत्मा
की मुक्ति
संयमित जीवन
से ही संभव है
I जीवन में
सबसे ज्यादा
महत्व कर्म का
है,अस्तु
मनुष्य को
अपने कर्मों
को सरल एवं
सहज रखना
चाहिये I निस्संदेह
उनके शिक्षाओ
पर उपनिषदों
का प्रभाव था
लेकिन
उन्होने जैन धर्म
के अनेक नवीन
सिद्धांतों
का प्रतिपादन
किया जो
निस्संदेह
मौलिक थे यथा
स्याद्वाद का
सिद्धांत- इस
सिद्धांत का
अर्थ है
विभिन्न
दॄष्टिकोण से
देखने पर सत्य
के विभिन्न
रुपों को देखा
जा सकता है ।
अपने
विचारों को
जनसाधारण तक
पहुंचाने के
उद्देश्य से
महावीर ने पावापुरी
में जैन संघ
की स्थापना की
I उन्होने
स्वयं अंग,
मगध एवं
मिथिला में
भ्रमण कर जैन
धर्म की
लोकप्रिय
बनाया I
नालंदा में
उनकी मुलाकात
आजीवक
संप्रदाय के नेता
घोषाल से हुई I
दोनो ने
मिलकर छः
वर्षों तक जैन
धर्म क प्रचार
किया I कालांतर
में दोनों के
बीच मतभेद पैदा
हो गया I जो
जैन भिक्षु
भद्रबाहु के
साथ दक्षिण
गये और पुनः
लौटकर वापस
आये वे
श्वेतांबर के
नाम से जाने
गये और जो
स्थूलभद्र के
नेतॄत्व में
मगध मे ही रहे
और महावीर की
मूल शिक्षाओं
का अक्षरशः
पालन किया वे
दिगम्बर कहलाये
I दिगम्बर
वस्त्र न
पहनने वाले और
श्वेताम्बर
श्वेत वस्त्र
पहनने वाले थे
I
जैन
सम्प्रदाय ने
भारतीय समाज
को काफ़ी प्रभावित
किया I
उसने वर्ण
व्यवस्था में
आये अतिरेकों
पर चोट किया
और कर्म के
आधार पर
सामाजिक
संरचना की बात
की I जैन
धर्मावलम्बियों
ने बोलचाल की
भाषा को
साहित्यिक
रूप प्रदान
किया I उनके
अधिकतर
ग्रंथों की
रचना प्राकॄत
भाषा में हुई
I अपभ्रंश
में भी महान
साहित्य का
सॄजन किया गया
Iवल्लभी
जैन शिक्षा का
प्रमुख
केन्द्र बन
गया I
जैन
सम्प्रदाय का
सिद्धांत (The principles of Jainism):-
महावीर
जैन तीर्थंकर[4]परम्परा
के चौबीसवें
तीर्थकार
थे।महावीर जैन
–धर्म के
प्रवर्तक
नहीं थे
किन्तु
उन्होनें जैन
धर्म का
पुनरुद्धार
किया। महावीर
की प्रमुख
शिक्षाएँ अथवा
जैन
सम्प्रदाय के
प्रमुख
सिद्धांत
निम्नलिखित
हैं:-
१.
अनीश्वरवाद:- जैन धर्म
ईश्वर को सॄष्टि
की रचयिता एवं
पालनकर्ता के
रुप में स्वीकार
नहीं करता।
महावीर क
विचार था कि
प्रत्येक
व्यक्ति में
अनेक शक्तियाँ
गुप्त रुप से
निहित हैं।
यदि व्यक्ति उनका
पूर्णरुपेण
विकास कर ले
तो स्वयं
परमात्मा बन
सकता है।इसके
अनुसार संसार
अनादि तथा
अनंत है , जैन
धर्मावलंबी
ईश्वर की नहीं
वरन्
तीर्थकारों
की पूजा करते
हैं क्योंकि जैन
धर्म के
अनुसार संसार
छह द्रव्यों
से बना है जो है-आकाश्,काल,धर्म,अधर्म,पुद्गम्
व जीव ।अतः संसार
के रचयिता
ईश्वर नहीं
बल्कि ये छह
द्रव्य हैं।
ऐसी स्थिति
में ईश्वर की
आरधना का कोई
महत्व नही है।
२.
आत्मवादिता
तथा
अनेकात्मवादिता:- जैन
सम्प्रदाय
आत्मा के
अस्तित्व को
स्वीकार करता
है। जिस
प्रकार
ब्राह्मण
धर्म में
आत्मा को अमर
व अनंत माना
जाता है, उसी
प्रकार जैन ने भी
आत्मा के
अस्तित्व को
स्वीकार किया
है। इनके
अनुसार आत्मा
केवल मनुष्य
या जानवरों
में ही नहीं
होता बल्कि
प्रत्येक जीव
में आत्मा होता
है। पेड-पौधों
में भी आत्मा
होती है।
आत्मा की कोई
आकृति नहीं
होती है किंतु
यह प्रकाश के
समान
अस्तित्व
रखती है। प्रत्येक
जीव में
अलग-अलग आत्मा
होती है।
आत्मा स्वभाव
से निर्विकार
एवम्
सर्वद्रष्टा
है किंतु मोह
के बन्धन व
कर्म जाल उसकी
शक्ति को
क्षीण कर देते
है।
३.
निवॄत्ति
मार्ग :- जैन
सम्प्रदाय
में निवृत्ति
मार्ग की
प्रधानता दी
गयी है। जैन
सम्प्रदाय के
अनुसार संसार
दुखों से परिपूर्ण
है। तथा
दुःखों का मूल
कारण तॄष्णा
है। तॄष्णा प्रवॄत्ति
मार्ग(सांसारिक
कर्मों का
मार्ग) पर चलने
से उत्पन्न
होता है। अतः
प्रत्येक
व्यक्ति को
प्रवित्ति
मार्ग को त्याग
कर निवृत्ति
मार्ग पर चलना
चाहिये तभी उसका
कल्याण हो
सकता है। अतः
जैन –धर्म के
अनुसार
व्यक्ति को
सांसारिक
सुखों का
त्याग कर
निवृत्ति तथा
तपस्या का
मार्ग अपनाकर
सम्पूर्ण
कैवल्य
प्राप्त करने
का प्रयास
करना चाहिये।
४.
कर्म
प्रधान एवं
पुनर्जन्म
में विश्वास:- जैन
सम्प्रदाय
कर्म की
प्रधानता को
स्वीकार करता
है एवं
पुनर्जन्म
में विश्वास
करता है। जैन
धर्म के कर्म
संबंधी
विचारों में
अन्य धर्मों
से भिन्नता
है। बौद्ध
धर्म में कर्म
इच्छा द्वारा
कृत कार्य को
कहते हैं तथा
हिन्दू धर्म
कर्म को
अभौतिक मानता
है जो कि पुर्व
कर्मों के
कारण निरंतर
क्रियाशील
रहता है। जैन
सम्प्रदाय
में कर्म को
शूक्ष्मतम
भूत तत्व के
रूप में मान
जाता
है।राग-द्वेष,रति,मोह
आदि से
प्रेरित
मनुष्य की
अनेक
सांसारिक क्रियाओं
द्वारा
कर्मों का
प्रवाह जीव की
ओर चलता रहता
है तथा वह
उनसे
आच्छादित होता
रहता है। कर्म ही
भावी जीवन का
निर्माण करता
है अतः कर्म
को अधिक सुंदर
बनाना
चाहिये।[5]
कर्म का
पुनर्जन्म के
साथ सीधा
संबंध है। कर्मों
के आधार पर ही
अगला जन्म
होता है।
मनुष्य को
सत्कर्म करते
हुए मोक्ष
प्राप्त करने
का प्रयास करना
चाहिये।जैन
धर्म मे कर्म
के आठ भेद बताए
गये हैं जो
निम्नलिखित
हैं:-
अ.
ज्ञानावरणीय- आत्मा के
ज्ञान को ढकने
वाला कर्म ,
ब. मोहनीय- मोह में
डालने वाला
कर्म,
स. वेदनीय- सुख-दुख के
सम्यक् ज्ञान
को रोकने वाला
कर्म,
द. नामकर्म- गति,शरीर व
परिस्थितियाँ
निर्धारित
करने वाला
कर्म,
य.
गोत्र कर्म- गोत्र
निर्धारित
कर्म,
र. अन्तराय
कर्म-
सत्कर्मों
में बाधक कर्म,
ल. आयु
कर्म-
आयु
निर्धारित
कर्म,
व. दर्शनावरणीय
कर्म- आत्मा
की सम्यक
दर्शन शक्ति
में वाधक कर्म
।
५.
निर्वाण:- अन्य भारतीय
धर्मों के
समान जैन-धर्म
में भी निर्वाण
अथवा मोक्ष
प्राप्ति को
ही अन्तिम
लक्ष्य माना
जाता है। इसके
अनुसार कर्म –
बंधन से
मुक्ति
प्राप्त करना
ही मोक्ष अथवा
निर्वाण
है।कर्म –बन्धन
से मुक्ति
प्राप्त करने
के लिये यह
आवश्यक है कि
पुर्व जन्म के
दुष्कर्मों
का नाश किया
जाय तथा
वर्तमान जन्म
में सत्कर्म
किया जाय ।
महावीर् के
अनुसार कठोर
तप –व्रत के
द्वारा पुर्व
जन्म के
दुष्कर्मों
का विनाश होता
है तथा तृष्णा
समाप्त होने
लगती है। अतः
मोक्ष
प्राप्त करने
के लिये कठोर
तप आवश्यक है
साथ ही
निर्वाण
प्राप्त करने
के लिये जैन
सम्प्रदाय
त्रिरत्न को
आवश्यक मनता
है।
६.
त्रिरत्न:-
जैन धर्म
में
त्रिरत्नों
का पालन करना
मोक्ष-प्राप्ति
के लिये
आवश्यक बताया
है। ये
त्रिरत्न
सम्यक् –
दर्शन,सम्यक्-ज्ञान
व
सम्यक्-चरित्र
है।तत्वार्थाधिगम
– सूत्र में
उमास्वामी ने
लिखा है कि सम्यक-
दर्शन,सम्यक –ज्ञान
व सम्यक् –
चरित्र ही
मोक्ष का
मार्ग है।
तीनों के
सम्मिलित
होने पर ही
मोक्ष की
प्राप्ति
होती है।[6]
अ. सम्यक–दर्शन:- यथार्थ
ज्ञान के
प्रति
श्रद्धा ही
सम्यक दर्शन
है। कुछ लोगों
में यह
स्वभावतः
विद्यमान
रहता है तथा
अन्य इसे विद्योपर्जन
व अभ्यास के
द्वारा सीख
सकते हैं।
यहाँ पर यह
उल्लेख करना
आवश्यक है कि
सम्यक्-दर्शन
का तात्पर्य तीर्थकारों
के उपदेशों को
आँख मूंद कर
मान लेना नहीं
है।
आ. सम्यक
ज्ञान:- सम्यक ज्ञान में
जैन उपदेशों
के सारांश का
ही ज्ञान प्राप्त
होता है किंतु
सम्यक ज्ञान
में जीव और
अजीव के मूल
तत्वों का
विशेष ज्ञान
प्राप्त होता
है।
सम्यक-ज्ञान असंदिग्ध
तथा दोषरहित
होता है।जिस
प्रकार सम्यक
दर्शन के
प्रतिबन्धक
कर्म होते
है,उसी प्रकार
सम्यक-ज्ञान
के
प्रतिबन्धक भी
विशेष प्रकार
का कर्म ही
होता है।अतः
इसके लिये
कर्मों का
विनाश आवश्यक
है। सम्यक ज्ञान,सत्य
व असत्य के
अन्तर को
स्पष्ट करता है।
इ.
सम्यक
चरित्र:- अहितकारी
कार्यों का निषेध
तथा हितकारी
कार्यों का आचरण
ही सम्यक
चरित्र है।
सम्यक चरित्र
के द्वारा जीव
अपने कर्मों
से मुक्त हो
सकता
है,क्योंकि
कर्मों के
कारण ही बन्धन
का दुःख
उत्पन्न होता
है।
७.
तप
एवं व्रत:- जैन
सम्प्रदाय
दुखों का मूल
कारण दुष्कर्म
एवम् तॄष्णा
को मानता है
तथा इससे मुक्ति
के लिये एक ही
रास्ता है कि
कठोर तप किया
जाय एवं व्रत
रखा जाय
अर्थात्
मोक्ष की प्राप्ति
के लिये तप
एवम् व्रत
आवश्यक है।
८.
अहिंसा:- जैन–सम्प्रदाय
में अहिंसा को
अत्यधिक बल
देता है। इसके
अनुसार जड़ एवं
चेतन दोनों
में जीव का
अस्तित्व है
तथा सभी जीव
समान है। अतः
उनमें
पारस्परिक
समादर का भाव होना
चाहिये।
दूसरो के
प्रति हमारा
आचरण अपने
प्रति चाहते
हैं। जैन-धर्म
के अनुसार जीव
की हत्या नहीं
करना ही
पर्याप्त नही
है बल्कि
हिंसा के विषय
में
सोचना,बोलना व
दूसरों को
हिंसा करने
देना भी अधर्म
है। अतः जब तक मन,वचन
एवं कर्म से
अहिंसा का
पालन न किया
जाय तब तक
अहिंसा पूर्ण
नहीं मानी
जाती।
९.
अठारह
पाप:- जैन-सम्प्रदाय
में अठारह
पापों का
उल्लेख किया
गया है। जो
मनुष्य को
कर्म बंधन में
डालता है, अतः
जैन – सम्प्रदाय
इन्हें पाप
समझता है। ये
पाप निम्नलिखित
है:- (i)अभिमान,(ii)हिंसा,(iii)कलह,(iv)क्रोध,(v)झूठ,
(vi)परिग्रह,(vii)राग,(viii)दोषरोपण,(ix)रति,(x)माया,(xi)लोभ,(xii)चोरी,(xiii)असंयम,(xiv)मिथ्यादर्शन,(xv)छलकपट,(xvi)निन्दा,(xvii)चुगली,
(xviii)द्वेष |
१०.
पंच
महाव्रत:- जैन
सम्प्रदाय
में पंच
महाव्रत का
पालन करना अनिवार्य
माना गया है।
इन पाँच
महाव्रतों में
चार(अहिंसा,सत्य,अस्तेय,अपरिग्रह)
का प्रतिपादन
पार्श्वनाथ
ने किया तथा
पाँचवां (ब्रह्मचर्य)
का महावीर ने।
जैनियों के
लिये इन
महाव्रतों का पालन
करना नितांत
आवश्यक माना
गया है। महावीर
स्वामी ने
रात्रि में
भोजन ग्रहण
करना भी निषिद्ध
बताया है।
अ. अहिंसा-
जीवों की
हत्या न करना।
आ. सत्य- इसके
अंतर्गत
मिथ्या वचन का
परित्याग
करना आवश्यक
था। सत्य व्रत
का पालन करने
के लिये लोभ,क्रोध,डर
को दूर करना
तथा किसी का
उपहास करने की
प्रवृत्ति को
रोकना आवश्यक
था।
इ. अस्तेय- विना दिये
हुए पर द्रव्य
को लेना ही
अस्तेय है।जैन
धर्म के
अनुसार किसी
जीव का प्राण
जिस प्रकार
पवित्र है उसी
प्रकार उसकी
धन-सम्पत्ति
भी है। अतः
धन-सम्पत्ति
का अपहरण उसके
जीवन के अपहरण
के समान है।
ई. अपरिग्रह- अपरिग्रह का
अर्थ है
विषयसक्ति का
त्याग । अपरिग्रह
व्रत के
अंतर्गत उन
सभी विषयों का
परित्याग
आवश्यक है
जिनके द्वारा
इन्द्रिय सुख
की उत्पत्ति
होती है।
उपरोक्त चार
व्रतों की
शिक्षा
पार्श्वनाथ
ने दी थी।
उ. ब्रह्मचर्य- महावीर ने इस
व्रत को
पार्श्वनाथ
के चार व्रतों
में जोड़
दिया।ब्रह्मचर्य
का अर्थ वासनाओं
का परित्याग
है। अनेक लोग
ब्रह्मचर्य का
अर्थ केवल
कौमार्य जीवन
को ही समझते
हैं। जैन धर्म
के अनुसार
ब्रह्मचर्य
केवल इन्द्रिय
सुखों का
परित्याग ही
नहीं वरन सभी
प्रकार के
कामों (कलुषित
भावनाओं) का
त्यागना
है।ब्रह्मचर्य
– व्रत को
पूर्णरूपेण
पालन करने के
लिये सभी प्रकार
की कामनाओं का
परित्याग
करना आवश्यक
है,चाहे वह
कामनाओं का
विषय मानसिक
हो अथवा बाह्य,सूक्ष्म
हो अथवा
स्थूल,ऐहिक हो
अथवा परलौकिक,अपने
लिये ही अथवा
दूसरों के
लिये।
जैनियों के
लिये इन
व्रतों का
पालन करना
नितांत
आवश्यक माना
गया है।
महावीर
स्वामी ने रात्रि
को भोजन ग्रहण
करना भी
निषिद्ध माना
है।
११.
वेदों
में अविश्वास:- जैन धर्म
वेदों में
विश्वास नहीं
रखता है। तथा
इन्हें अपौरुषेय
नहीं मानता
है। जैन धर्म
ने
ब्राह्मण-धर्म
में व्याप्त
कुरीतियों की
भी आलोचना
की।अहिंसात्मक
नीतियों का
पालन करने के
कारण जैन
सम्प्रदाय
पशु बलि
व यज्ञों का
घोर विरोधी
है।
१२.
समानता
एवं सदाचार पर
बल:-
जैन
सम्प्रदाय
वर्ण
व्यवस्था को
स्वीकार नहीं
करता ।
इसके अनुसार
ब्राह्मण और
शुद्र में कोई
अंतर नहीं है।
जैन
सम्प्रदाय के
अनुसार
निर्वाण
प्राप्त करने का
अधिकार सबों
को प्राप्त है
चाहे वह वह
शुद्र हो अथवा
ब्राह्मण । इस
धर्म के
अंतर्गत
नारियों को
सम्मान देने
पर काफ़ी बल
दिया गया है। इसमें
सदाचारी एवं
नैतिक जीवन
व्यतीत करने पर
भी अधिक वल
दिया गया है।
जैन
सम्प्रदाय के
अनुसार सदाचारी
व्यक्ति
निर्वाण
प्राप्त करता
है।
१३.
गुणव्रत:- जैन
सम्प्रदाय के
अनुसार तीन
गुणव्रतों का पालन
करना
अनिवार्य है-
अ.
दित्व्रत- प्रत्येक
दिशा में अपने
जीवन काल में
एक निश्चित
दूरी
निर्धारित
करें जिसके
आगे अपने जीवन
काल में नहीं
जाना चाहिये।
ब. अनर्थदण्डव्रत-
पाप में
वॄद्धि करने
वाली प्रयोजनहीन
वस्तुओं का
त्याग।
स. देश
व्रत- समय के
अनुकूल भ्रमण
की दूरी में
और कमी करना।
१४.
शिक्षाव्रत:- उपरोक्त तीन
व्रतों के
अतिरिक्त चार
शिक्षाव्रतों
का भी उल्लेख
किया गया है-
अ.
अतिथि
सम्बिभाग- पूजा व दान-
दक्षिणा तथा
अतिथियों को
भोजन कराना।
ब. सामायिक-
पापों से मुक्त
हो कर चिंतन
करना।
स. प्रोषोघोपवास-
उपवास-व्रत
रखना सप्ताह
में एक वार।
द. भोगोपभोगपरिमाण
व्रत- भोजन की
मात्रा का
निर्धारण
करना।
१५.
तीर्थंकरों
की उपासना
करना:-
यद्यपि जैन –
सम्प्रदाय
ईश्वर को
सॄष्टिकर्ता
नहीं मानता
किंतु वे
महापुरुषोम्
की पुजा करना
आवश्यक समझता
है। इसी लिये
जैन
सम्प्रदाय
ईश्वर की जगह तीर्थंकरों
की आराधना
करते हैं।
क्योंकि
ईश्वर के
समस्त गुण
तीर्थंकरों
में निहित है।
अतः प्रेरणा
और मार्ग-
दर्शन के लिये
जैन सम्प्रदाय
में
तीर्थकारों
की उपासना को
आवश्यक माना
गया है।
जैन धर्म
मानवीय
भावनाओं से
प्रभावित
था.तथा उसमें
लोगों को
सात्विक जीवन
व्यतीत करने व
अहिंसा के
मार्ग पर चलने
के लिये प्रेरित
किया। डा०
हीरा लाल जैन
ने जैन
सिद्धांत के
विषय में लिखा
है कि “जैन –दर्शन
को एक वाक्य
में ही
संग्रहित
किया जा सकता
है।जीव तथा
अजीव के
पारम्परिक
सम्पर्क से
ऊर्जा का
निर्माण होता
है।जिसके
कारण
जन्म,मृत्यु
तथा जीवन के
विभिन्न अनुभवों
का अविर्भाव
होता है। इस
प्रक्रिया को
रोका जा सकता
है तथा पूर्व
निर्मित
ऊर्जा का भी
विनाश हो सकता
है,यदि निर्वाण
को प्राप्त
करने के लिये
आवश्यक
संयमित जीवन
व्यतीत किया
जाय।“[7]
जैन
सम्प्रदाय की
भारतीय
संस्कॄति को
देन (Contribution of Jainism to Indian
Culture) :-
यद्यपि
जैन
संम्प्रदाय
मुख्यतया
भारतवर्ष की
सीमाओं मे ही
सीमित रहा तथा
भारत का
प्रमुख धर्म
बनने का भी
अवसर उसे प्राप्त
नहीं हो सका,
परंतु भारत का
प्रमुख धर्म
बनने का अवसर
उसे प्राप्त
नहीं हुआ।
लेकिन फ़िर भी
इसने भारतीय
संस्कॄति के
बिभिन्न
पहलुओं पर
व्यापक
प्रभाव पडा।इसने
भारतीय
कला,साहित्य व
दर्शन को कुछ
विशिष्ट देन
दिया है:-
१.
दर्शन
के क्षेत्र
में देन-
जैन-सम्प्रदाय
ने भारतीय
दर्शन के
विकास में महत्वपूर्ण
भूमिका
निभायी।
यद्दपि इस पर
उपनिषदों का
प्रभाव था
किंतु फ़िर भी
जैन –दर्शन ने
कई नवीन
सिद्धांतों
का प्रतिपादन
किया ,जो
निस्संदेह
मौलिक
थे।जैसे
स्यादवाद को
लिया जा सकता
है।स्यादवाद
का अर्थ यह है
कि विभिन्न
दृष्टिकोण से
देखने पर
’सत्य’ के
विभिन्न रुप
देखे जा सकते
हैं।कोई भी
विचार सत्य के
एकाकी रूप को
ही व्यक्त
करता है।लोग
विशिष्ट
परिस्थिति
में सत्य के
कुछ रूप को
देखकर ही उसे
सम्पूर्ण
सत्य समझ लेते
हैं । वास्तव
में सम्पुर्ण
सत्य को समझने
के लिये सत्य
के प्रत्येक
रूप व पहलू को
समझना परम आवश्यक
है। स्यादवाद
के अतिरिक्त
भी अनेक मौलिक
सिद्धांतों
को जैन-धर्म
ने भारतीय
संस्कॄति को
प्रदान किया।
इस संदर्भ में
अनेकांतवाद
का सिद्धांत
उल्लेखनीय
है।
२.
अहिंसा:-
यद्दपि
अहिंसा का
सिद्धांत जैन
सम्प्रदाय में
कोई मौलिक
सिद्धांत
नहीं था,किंतु
उल्लेखनीय है
कि अहिंसा का
प्रचार जितना
इस सम्प्रदाय
के द्वारा
किया गया उतना
किसी अन्य
सम्प्रदाय के
द्वारा नहीं
हुआ। इसके
द्वारा
जीव-जंतु के
अतिरिक्त
वनस्पति तक की
हत्या न करने
का अनुरोध
किया गया है
क्योंकि इसके
अनुसार वनस्पति
में भी जीव
होता है। इसी
के फ़लस्वरुप वैदिक
धर्म के
अंतर्गत होने
वाले यज्ञों
में भी बलि
प्रथा
शनैः-शनैः कम
होने लगी। जैन
सम्प्रदाय के
द्वारा
अहिंसा के
प्रचार में
काफ़ी व्यापक
सहयोग मिला।
३.
राजनीतिक
प्रभाव:-
जैन
सम्प्रदाय के
द्वारा
अहिंसा के
प्रचार –प्रसार
ने तत्कालीन
राजनीतिक
स्थिति को भी
प्रभावित
किया। जैन
अनुयायी
शासकों
द्वारा यथासम्भव
शांतिप्रिय
नीति का पालन
किया जाना इस
बात का प्रमाण
है। इसके साथ
ही जैन
साहित्य से भी
हमें काफ़ी
महत्वपूर्ण
जानकारी
प्राप्त होती
है।
४.सामाजिक
प्रभाव:-
जैन
– सम्प्रदाय का
सामाजिक
क्षेत्र में
महत्वपूर्ण
देन है। जैन
संघों व जैन
धर्म को आश्रय
देने वाले
राजाओं ने
समाज के निर्धन
वर्ग के लिये
अनेक
औषधालय.विश्रामलय
व पठशालाओं का
निर्माण
कराया,जहाँ
क्रमशः
निःशुल्क दवाईयाँ,
ठहरने की
व्यवस्था व
शिक्षा की
व्यवस्था
उपलव्ध थी। इसमें
सामाज के अन्य
वर्गों में भी
निर्धनों के
प्रति दया भाव
व दान देने की
भावना जाग्रत
हुई । इसके
अतिरिक्त
जैन-धर्म ने
स्त्रियों की
स्थिति
सुधारने के
लिये भी
प्रयास किया।
इसी उद्देश्य
से उन्हें जैन
संघों मे रहने
व जैन
शिक्षाओं का
पालन कर
मोक्ष प्राप्त
करने का भी
अधिकार
जैन-सम्प्रदाय
के द्वारा
दिया था ।
महावीर के
समय में
जाति-प्रथा
प्रचलित थी तथा
समाज में
ऊँच-नीच व
छुआछूत की
भावनाएँ
प्रबल थी। इस
कारण निम्न
वर्ग
(शुद्रों) की
स्थिति
शोचनीय थी।
जैन धर्म ने न
केवल जाति प्रथा
का विरोध किया
वरन सभी
जातियों अथवा
व्यक्तियों
को एक समान
बताया। जैन
धर्म के द्वारा
जाति प्रथा का
विरोध करने के
कारण ब्राह्मणों
की शक्ति का
ह्रास हुआ व
सामाजिक
समानता की
भावना प्रबल
होने लगी,
जिससे
शुद्रों की स्थिति
में सुधार
हुआ।प्रो०
डी० एन० झा[8]
का विचार है
कि , जैन धर्म
के कारण दासों
की स्थिति में
भी उल्लेखनीय
सुधार हुआ। एक
जैन ग्रंथ में
वर्णन है कि मालिकों
को अपने
दासों,दासियों
कर्मकारों और
कर्मचारियों
का अच्छी तरह
से भरण –पोषण
करना चाहिये।
इस प्रकार की
शिक्षाओं से समाज
में शुद्रों व
दासों के
प्रति उदारता
एवं सहृदयता
का भाव उदय
हुआ,जिसका सीधा
प्रभाव उनकी
सामाजिक
स्थिति पर
पड़ा।
५.धार्मिक
देन:-
जैन
धर्म ने
ब्राह्मण
धर्म की
बुराईयों की
आलोचना की थी।
अतः
ब्राह्मणों
को भी उनके
धर्म में
विद्यमान
कुरीतियों का
ज्ञान हुआ।
अपने धर्म के
अस्तित्व को
बचाने के लिये
यह आवश्यक हो
गया कि वे
उनमें सुधार
करें। अतः जैन
धर्म के कारण
ब्राह्मण-धर्म
भी पुर्व की
तुलना में
अधिक सरल व
आडम्बररहित
हो गया। जैन
संसार के चेतन
स्रष्टा,उसके
पालनकर्ता अथवा
व्यापक
परमत्मा को
नहीं मानते।
उनके अनुसार
“ईश्वर उन
शक्तियों का
उच्चतम,शालीनतम
और पूर्णतम
व्यक्तीकरण
है जो मनुष्य
के आत्मा में
निहित है।“
६.साहित्यिक
देन:- जैन
विद्वानों के
द्वारा
प्राकॄत(लोकभाषा)
में साहित्य
की रचना की
गयी। अतः
लोकभाषा
प्राकॄत को
समॄद्ध बनाने
में जैन-धर्म
का विशेष
योगदान है।
जैन धर्म के
मूल धार्मिक
ग्रंथों (१२
अंग,११ उपांग,१०
पैन्न,४
मूलसुत्त.१
नन्दीसुत्त
तथा ७
छयसुत्त) भे
प्राकृत भाषा
में ही रचित है।
कुछ धार्मिक
ग्रंथों की
रचना अपभ्रंश
भाषा में भी
हुई। दक्षिणी
भारत के
साहित्य पर भी
जैन धर्म का
प्रभाव
है।दक्षिण
भारत में जैन
धर्म के
प्रचार हेतु
कन्नड़,
तमिल,तेलगू
आदि भाषाओं
में भी जैन –ग्रंथों
की रचना की
गयी। जैन
विद्वानों ने
न केवल
धार्मिक व
दार्शनिक
ग्रंथों की
रचना की वरन
उन्होनें
व्याकरण,काव्य
व गणित आदि पर
भी अनेक
ग्रंथो की
रचना की।गुप्त
काल में
संस्कॄत भाषा
के अधिक
लोकप्रिय
होने के कारण
जैन
विद्वानों ने
अपने धर्म ग्रंथों
की रचना
संस्कृत में
की । ग्यारहवीं
शताब्दी में हेमचन्द्र
सूरी नामक जैन
विद्वान ने
संस्कॄत व
प्राकृत
दोनों ही
भाषाओं में
अनेक महत्वपूर्ण
ग्रण्थों का
सृजन किया।
प्रमुख जैन
साहित्यकारों
में
हरिभद्र,सिद्धसेन
आदि के नाम भी
उल्लेखनीय
हैं किंतु
सर्वोच्च
स्थान हेमचन्द्र
सूरी का ही
है। जैन धर्म
की साहित्यिक
देन के संदर्भ
में डा० हीरा
लाल जैन का
कथन
उल्लेखनीय
है। उनके
अनुसार,
जैनियों ने
देश के भाषा
विकास में
महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई
है। संस्कॄत
तथा पाली भाषा
का ब्राह्मण व
बौद्धों
द्वारा पवित्र
रचनाओं व
शिक्षाओं की
रचना हेतु
प्रयोग किया
गया। किंतु
जैनियों ने
विभिन्न
स्थानों व
विभिन्न
समयों में
लोकभाषा का
प्रयोग ज्ञान
को सुरक्षित रखने
व अपने धर्म
के प्रचार के
लिये
किया।उन्होंने
ही पहली बार
अनेक
क्षेत्रीय
भाषाओं को साहित्यिक
स्वरूप
प्रदान किया।[9]
पुर्व
मध्यकाल में
अनेक जैन
कथाकोशों और
पुराणों की
रचना हुई,
जैसे हरिभद्र
सुरि(७०५ से
७७५ ई०) ने समरादित्यकथा,धूर्ताख्यान
और कथाकोश,उद्द्योतन
सूरि (७७८ ई०)
ने कुवलयमाला,सिद्धर्षिसूरि(६१५
ई०) ने
उपमितिभव
प्रपंच
कथा,जिनेश्वर
सूरि ने
कथाकोषप्रकरण
और नवी
शताब्दी ईसवी
में जिनसेन ने
आदि पुराण और
गुणभद्र ने
उत्तर पुराण
की रचना की ।
इस जैन
साहित्य से
तत्कालीन
भारतीय समाज
की सामाजिक और
धार्मिक दशा
पर पर्याप्त प्रकाश
पड़ता है।
७. कला के
क्षेत्र में
देन:- जिस
प्रकार जैन
साहित्यकारों
ने अपनी
रचनाओं द्वार
भारतीय
साहित्य को
समृद्ध
बनाया,उसी
प्रकार जैन कलाकारों
ने भी अपनी
कलाकृतियों
द्वारा
भारतीय कला के
कोष में
असीमित वृद्धि
की। जैन धर्म
के
अनुयायियों
ने अपने धर्म
के प्रचार एवं
प्रसार हेतु
तथा पुज्य
तीर्थकारों
की स्मृति को
स्थायी बनाये
रखने के उद्देश्य
से कलात्मक
मन्दिरों,स्तूपों,मठों,रेलिंग,प्रवेश
द्वार,स्तम्भ,गुफ़ाओं
व मुर्तियों का
निर्माण
कराया।ईसा
पुर्व
द्वितीय सदी
में जैन –सम्प्रदाय
ने
अपने
प्रचार-प्रसार
हेतु
हाथीगुम्फ़ा
नामक गुफ़ाओं
में अनेक
कलाकृतियों
का निर्माण
किया गया।इसके
अतिरिक्त
राज्जृह,पावापुरी,पार्श्वनाथ
पर्वत,सौराष्ट्र,राजस्थान
व मध्य भारत
में अनेक जैन
मंदिरों व
मुर्तियों का
निर्माण
करवाया जो कला
की दृष्टि से
अनुकर्णीय
है।राजस्थान
में आबू पर्वत[10]
पर तथा
बुन्देलखन्ड
में खुजराहो
में ग्यारहवीं
शताब्दी में
निर्मित
मन्दिर
वास्तुकला और
मुर्तिकला के
अद्भुत नमूने
हैं। दक्षिण
भारत में
श्रवनवेलगोला
के निकत ७० फ़ीट
ऊँची
गोमतेश्वर प्रतिमा
एवं बड़बानी
में ८४ फ़ीट
ऊँची जैन
तीर्थकार की
प्रतिमा
दर्शनीय
है।इन
प्रतिमाओं का
निर्माण
विशाल
चट्टानों को
काट कर किया
गया है, जिसका
उदाहरण
चित्तौड़ के
दुर्ग में
निर्मित स्तम्भ
है। जैन कला
का ग्यारहवीं
एवं बारहवीं
शदी में
अत्यधिक
विकास हुआ था।[11]
जैन कलाकारों
का चित्रकला
के क्षेत्र
में भी योगदान है। जैन
चित्रकला में
सुनहरे तथा
अन्य चमकीले
रंगों का
प्रयोग किया
गया है। जैन
चित्रकला के
संदर्भ में
उल्लेखनीय
तथ्य यह है कि
यह चित्रकला
प्रमुखतया
हस्तलिखित
पुस्तकों पर
ही की गयी है।
जैन
तीर्थकरों व
मुनियों के
चित्र भी इन
पुस्तकों पर
चित्रित
मिलते हैं।[12]
संदर्भ
ग्रंथ सूची:-
१.
प्राचीन
भारत का
इतिहास:
रमाशंकर
त्रिपाठी
२. सर
सर्वपल्ली
राधाकृष्णन् :
Indian philosophy,भाग
१,पृ० ३३१
३.
प्राचीन भारत
का इतिहास:
द्विजेन्द्रनारायण
झा,कृष्णमोहन
श्रीमाली
४. भारत
का राजनीतिक
एवं
सांस्कृतिक इतिहास:डा०
ए० के० मित्तल
५. ए०
एल० वाशम:
अदभुत भारत
६. jha D.N. : Ancient
७. Kosambi,
D.D: An introduction to the study of Indian
History (1956).
8. Kosambi D.D.: Myth and Reality (1942)
9. Kosambi D.D. : The Culture and
civilization of Ancient
10. Basham A.L.: A culture History of India (1975)
11. Raychoudhari, H.C.: Political History
of Ancient
(1972)
12. Sharma R.S : Perspectives in Social and
Economic History
Of early
13. Sharma R.S. : Material culture and social
formations in
Ancient
14. Thapar, Romila: Ancient India Social history
(1978)
15. संस्कृति
के चार
अध्याय:
रामधारी
सिंह’दिनकर’
१६.
प्राचीन भारत
का इतिहास :
रामशरण शर्मा
१७. एच०
डी०
सांकालिया:
प्राचीन भारत
(१९७८)
१८. Bhattacharya N.N.: Ancient Indian Rituals and their Social
Content (1975)
19. Bhattacharya N.N.: Jain philosophy:
historical outline
(1976)
20. majumdar R.C.
et.al.(Eds.) : The History and Culture of the
Indian people, Viii:
the Classical age(1970)
21. Sharma R.S.: Social
Change in early medieval
22. Yadav B.N.S. Society and
Culture in
Twelfth Century (1973)
23. भारत
का इतिहास:
आर्शीवादीलाल
श्रीवस्तव
24. Medieval
Jainism: Culture and Environment. eds.
Prem
Sunman Jain and Raj Mal Lodha
25. Jainism and Ecology:
Nonviolence and the Web of Life.
Harvard:
2002.
26. “Jainism and Buddhism.” In A
Companion to Environmental
Philosophy, ed.
Dale Jamieson.
27. “The Living Cosmos of Jainism: A Traditional
Science
Grounded in Environmental
Ethics,” in Religion and
Ecology: Can the Climate Change?
Daedalus: Journal of
the
(2001):207-224.
(http://www.amacad.org/publications/fall2001/chapple.aspx)
28. "Reverence for All Life: Animals in
the Jain Tradition." Jain
Spirit2 (1999):
56-58.
29.
“Toward an Indigenous Indian Environmentalism.”
In Purifying the Earthly Body of God:
Religion and Ecology
In Hindu
30.
“Contemporary Jain and
Hindu Responses to the Ecological
Crisis.” In An
Ecology of the Spirit: Religious Reflection and
Environmental Consciousness, ed.
Michael Barnes.
31.
Nonviolence to Animals,
Earth, and Self in Asian
Traditions.
Press, 1993.
32.
"Nonviolence to Animals in Buddhism and Jainism." In Inner
Peace, World Peace: Essays on
Buddhism and
Nonviolence, ed.
Kenneth Kraft, 49-62.
33. Cort, John E. Jains in the World: Religious
Values and
Ideology in
34. Open Boundaries: Jain
Communities and Cultures in Indian
History.
1998
35.
“Recent Fieldwork Studies of the Contemporary
Jains.” Religious Studies Review 23, no. 2 (1997): 103–111.
36. Costain, Bruce Douglas. Applied
“Jainism”: Two Papers
Outlining How the Jaina View of
Reality Helps to Make
Decisions that will Result in
Increased Peacefulness,
Happiness and Love for Ourselves,
as well as for Other
Living Beings. 2nd
Edition.
2003.
37.
Vegetarianism and a Jain Dispute.”
In Jain Doctrine and
Practice: Academic Perspectives.
Joseph T. O’Connell, ed.
34. “Recent Research on Jainism.” Religious Studies Review 23,
no. 2 (1997): 113–19
35.
Flugel, Peter. Review of Jainism and Ecology: Non-Violence
in the West of Life,
edited by Christopher Key
Chapple. Environmental
Ethics 27, no. 2
(2005): 201.
36. Glasnap, Helmuth von. The Doctrine of Karma in Jain
Philosophy. Translated by G. Barry Gifford.
Vijibhai Jivanlal Pannalal Charity
Fund, 1992.
37. Granoff, Phyllis. “The Violence of
Non-Violence: A Study of
Some Jain Responses to Non-Jain
Religious
Practices.” Journal of the International
Association of
Buddhist Studies 15, no. 1 (1992): 1–43.
38.
Jacobsen Knut A. Prakrti in Samkhya-Yoga: Material
Principle, Religious Experience,
Ethical Implications. New
39. Jain,
D. C. “Vegetarianism and its Role in Environmental
Preservation.” InMedieval Jainism: Culture and Environment,
eds. Prem Suman Jain and Raj Mal
Lodha, 103–108. New
40. Jain, Pankaj. "The Dharmic Method to
Save the Planet."
HuffingtonPost.May12,2011.
“Jainism
and Environmental Ethics.” Union Seminary Quarterly
Review, 2011.
41. Jaini, Padmanabh. Gender and Salvation: Jaina Debates
on the
Spiritual Liberation of Women.
42. “Indian
Perspectives on the Spirituality of Animals.” In Buddhist
Philosophy and Culture: Essays in
Honour of N. A.
Jayawickrema, eds. David J. Kalupahana and W.
G.
Weerarante, 169–78. Columbo: N. A.
Jayawickrema
Felicitation Volume Committee, 1987.
43. Jussawala,
J. M. “Vegetarianism:
Jainism: Culture and Environment, eds.
Prem Suman Jain and
Raj Mal Lodha, 103–108.
1990.
44. Kumar, Sehdev. A
Thousand-Petalled Lotus: Jain Temples of
Rajasthan
– Architecture and Iconography.
Gandhi National Centre for the Art and
Abhinav, 2001.
45. Laidlaw, James. Riches and Renunciation: Religion,
Economy,
and Society Among the Jains.
1995.
46. Lishk, S.S. Jaina Astronomy (Post-Vedic Indian Astronomy): A
Challenge to Western Influences.
Reprint.
International, 2000
47. Mahias,
Marie-Claude. Déliverance et
convivialité: le systèm
culinaire des Jaina.Paris:
Éditions de la Maison des Sciences de
l’Homme, 1985.
48. Naravan, Raideva and Janardan Kumar, eds. Ecology
and
Religion: Ecological Concepts in
Hinduism, Buddhism, Jainism,
Islam, Christianity and Sikhism. In Collaboration
with Institute for
Socio-Legal Studies, Muzaffarpur,
Deep Publications Pvt. Ltd., 2003.
49. Norman, K. R. “The Role of the Layman
According to the Jain
Canon.” In The Assembly of Listeners: Jains in
Society, eds.
Michael Carrithers and Caroline
Humphrey, 31–39.
50. Sangave, Vilas Adinath. Facets
of Jainology: Selected Research
Papers on Jain Society, Religion and
Culture. Mumbai: Popular
Prakashan, 2001.
51. Schmidt,
Hanns-Peter. “Ahimsa and Rebirth.” In Inside
the Texts,
Beyond the Texts: New Approaches to the
Study of the
Vedas, ed. Michael Witzel, 207–34.
Harvard Oriental Series,
Opera Minora, vol. 2.
and Indian Studies,
52. Sethia,
Tara, ed. Ahimsa, Anekanta and Jainism.
Banarsidass, 2004
53. Singhvi,
L. M. The Jain Declaration on
Nature.
Jaina High Commissioner for
54. Sukhalaji,
Pandit. The World Pacifist
Meeting and the Role of
Jainism.Ahmedabad:Publishing
House, 1957.
55. “Jainism
and Ecology.” In Worldviews
and Ecology: Religion,
Philosophy, and the Environment, eds. Mary Evelyn Tucker and
John A. Grim, 138–49.
56. Life Force: The World of Jainism.
Humanities Press, 1991.
57. Zaveri, J.S. Microcosmology:
Atom in the Jain Philosophy and
Modern Science. 2nd
Edition. Ladnun,
Bharati Institute, 1991.
[1] राजबलि
पाण्डेय,प्राचीन
भारत का
इतिहास,पॄ० १०४
[2] Bhattacharya B.C., the jaina
Iconography,p.81
[3] Rhys Davids,Encyclopedia Britanica,Vol. XII, P. 543
[4] हिन्दू
सभ्यता,पॄष्ठ
२३९
[5] सिंह एवं
यादव, भारतीय
कला एवम्
संस्कॄति,पॄष्ठ
३७७
[6] तत्वार्थाधिगम-सूत्र,१.२-३
[7] The Cultural Heritage of
[8] प्रो. डी
एन झा-
प्राचीन भारत
एक रूपरेखा
(पृ०-४७) का
विचार है- जैन
धर्म के कारण
दासों की
स्थिति में
उल्लेखनीय
सुधार हुआ।
[9]
“Tha jains have
played a very important role in the linguistic development of the country. Sanskrit has all along been the
linguistic development of the country. Sanskrit has all along been the medium
of sacred writing and preaching’s of the brahmanas and
pali that of the Buddhists. But the
jains utilized the prevailing
languages of the
different times at different
place for their religious propaganda as
well as for the preservation of knowledge ………..they even gave a literary
shape to some of the regional languages for the first time.” “ The cultural
Heritage of
[10] “The jain marble temple at
[11] Stevenson, Heart of Jainism,p.235
[12] हिन्दू
सभ्यता १. पृ०
२४६